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Post # 29; 15.02.2017 - "मेरे तनहा लम्हों में मालिक की मदद": ए. जयलक्ष्मी, हैदराबाद

“मेरे तनहा लम्हों में मालिक की मदद”: ए. जयलक्ष्मी, हैदराबाद

(Written by Sri. Haragopal Sepuri, based on oral narration by Smt. Jayalakshmi)

(Hindi translation: Shyam Sen)

मै और तिरुपति की डा. वरलक्ष्मी गुंटूर कॉलेज में सहपाठी थे. उन दिनों डा. वरलक्ष्मी के माता-पिता (सेपुरी लक्ष्मीनरसैय्या व सेपुरी अल्लुराम्मा) मुझे अपनी बेटी की तरह ही प्यार करते थे. आज भी उनके बच्चे मुझे बड़ी दीदी मानते हैं. उन दिनो मै उनके स्नेह् को ठीक से समझ नही पाई थी.  कुछ दिनों के बाद (1944 में) छुट्टियों में डा. वरलक्ष्मी के साथ उनके घर कलहस्ती गयी जहां उसके पिताजी डेपुटी इन्सपेक्टर ऑफ स्कूल्स थे.  वहां से मुझे मेरे पित्रालय इरोड जाना था. मैंने डा. वरलक्ष्मी के पास प्रभु का एक लॉकेट देखा. ठीक वैसा ही एक लॉकेट मुझे चाहिये था. मुझे एक जपमाला की भी दरकार थी.  अचानक भाई हरगोपाल सेपूरी एक छोटीसी जपमाला लाया और मुझे दे दी. वह आज भी मेरे पास है. वह तब सिर्फ़ 10 साल का था.  उनके घर पर कुछ दिन रहने के बाद मै अपने पित्रालय के लिए ट्रेन से चल पड़ी.  तिरुपति स्टेशन के प्लेटफार्म पर एक लड़का  प्रभु के लॉकेट बेच रहा था. (साधारणतया प्रभु के लॉकेट रेलवे प्लेटफार्म पर आम वस्तुओं की तरह नहीं बिकते.) मैंने एक खरीदा.  लॉकेट हाथ में रखे मै कुछ सोच रही थी कि मेरा पर्स खो गया. उन दिनों मुझे कटपड़ी में गाड़ी बदलनी पड़ती थी.  उसी पर्स में मेरा सारा पैसा था.  कटपड़ी स्टेशन पर उतरकर मै बिलकुल हतवाक सी प्लेटफार्म पर खड़ी थी.  एक व्यक्ति (सत्यम्‌) ट्रेन में बैठे एक लंबे व्यक्ति के साथ बातें कर रहा था.  मै उनकी तरफ़ देख् रही थी. सहसा उस व्यक्ति ने मेरे चाचा एथिराजुलु नाइडु का नाम लिया. ट्रेन छूटने के बाद उस व्यक्ति ने मेरे पास आकर पूछा कि मुझे कहां जाना है. मैंने उनसे पूछा क्या वे एथिराजुलु नाइडु को जानते हैं. उन्होंने कहा कि वो उन्हें बहुत अच्छी तरह से जानते हैं. तब मैंने उनको टिकट तथा पर्स खो जाने के बारे में बताया. उन्होने मुझे चिन्‍ता न करने को कहा और मुझे वेटिंग रूम में बिठाकर गए और टिकट ले आए.  मैंने उनसे राह् खर्च के लिए 5 रुपये उधार लिए और कहा कि मै उन्हें मनी आर्डर से भेज दूँगी.  उनका पता भी लिख लिया.

इस तरह से मुझे ट्रेन यात्रा के दौरान प्रभु की उपस्थिति की अनुभूति हुई.  घर पहुँचकर मैंने मनीऑर्डर से 5 रुपये उस वयक्ति (सत्यम्‌) को भेज दिया और मुझे मनीऑर्डर प्राप्ति की रसीद भी मिल गयी लेकिन उस पर अंकित हस्ताक्षर अपठ्य थे. कुछ समय के पश्चात जब मै अपने चाचा एथिराजुलु से मिलीं और इस बात का ज़िक्र किया तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया और कहा कि वो उस व्यक्ति (सत्यम्‌) को क़तई नहीं जानते थे.  तब फिर मेरे तनहा लम्हों में वह कौन था जो मेरे पास आया था एवं मेरी मदद की थी?  मुझे विश्वास हो गया कि वह व्यक्ति और कोई न होकर स्व्यं मेरे प्रभु ही थे.

Post # 27; 25.12.2016 - "बाबा - मेरे हर पल के रखवाले": आर.जी.प्रकाश, बंगलौर

“बाबा – मेरे हर पल के रखवाले”: आर.जी.प्रकाश, बंगलौर

मेरे जीवन में बाबा के प्यार तथा पितृस्नेह को अनुभव करने का सौभाग्य मुझे अनेकों बार प्राप्त हुआ है. उन अनुभवों से मुझे अपार खुशी मिली है. साथ ही मुश्किलों का सामना करने की हिम्मत भी नसीब हुई है. मुझे लगता है कि बाबा हर पल मेरे साथ खड़े हैं, हर कदम पर मेरे साथ चल रहे हैं. उनमें से ज्यादातर अनुभवों को शब्दांकित करना मेरे बस की बात नहीं है.  अतः मै साथी भक्तों के साथ हाल ही की एक छोटीसी घटना शेयर कर रहा हूँ.

अक्टूबर 2016 में सोनामुखी नाम सप्ताहम से लौटंने के पश्चात एक दिन मुझे कुछ अस्वस्थ सा महसूस हुआ.  मैंने प्रिय किशोर को फोन किया. वह मुझे जाँच के लिए अस्पताल ले गया.  वहाँ मेरी एक्स-रे रिपोर्ट देखने के बाद डाक्टरों को संदेह हुआ कि मुझे निमोनिया हुआ है और मुझे आइसीयू में भर्ती कर लिया. तीन दिन बाद जैसेही मेरी हालत में कुछ सुधार हुआ मुझे जनरल वार्ड स्थानांतरित कर दिया गया.  उसके दो दिन बाद मुझे अस्पताल से छुट्टी भी मिल गयी. घर पर पहले दो दिन तो मुझे आराम रहा. घर के अन्दर चल-फिर लेता था, साधारण खाना भी खा रहा था. लेकिन उसके बाद से मुझे बहुत तेज़ शारीरिक बेचैनी होने लगी. एक दिन तो मै सारी रात न सो सका. अगली सुबह किशोर फिर मुझे अस्पताल ले गया.  डाक्टरों ने फिर जब एक्स-रे निकाला तो मेरे फेफड़ों में इतना सारा बलगम जमा हुआ देखकर दंग रह गये. उन्होंने मेरी स्थिति को संगीन समझा और अमरीका में रहने वाले मेरे बेटे को बुला भेजा. जैसे-तैसे वह जो भी फ्लाइट मिलीं उससे यहाँ आ पहुँचा. डाक्टरों ने मेरे बेटे को सूचित किया कि मेरी उमर को ध्यान में रखते हुए ऐसा लगता है कि मुझ पर जान का खतरा बना हुआ है, महँगी चिकित्सा करनी पड़ेगी फिर भी कुछ कहा नहीं जां सकता कि जान बचेगी भी या नहीं. इस तरह के मशविरे के बाद उन्होंने मेरे बेटे से सम्यक्‌ रूप से सोच-विचार कर शीघ्र निर्णय लेने के लिए कहा.  उसने उन्हें प्रभु पर हमारी आस्था के बारे में बताया तथा तुरन्‍त चिकित्सा प्रारंभ करने के लिए आग्रह किया.

आइसीयू में रहते हुए 15 दिन तक चिकित्सा चली और मेरी स्थिति में भी आहिस्ता आहिस्ता सुधार हुआ.  एकदिन जब आइसीयू में मुझे कुछ अच्छा महसूस हुआ तो बिस्तर से उठकर साथ रखे व्हील चेयर पर बैठने की मेरी इच्छा हुई. नजदीक खड़े एक परिचारक से मैंने सहायता माँगी.  उसने बड़े सलीक़े से मुझे उठाकर कुर्सी पर बिठा दिया.  मैं क़रीब एक घन्टा कुर्सी पर बैठा रहा.  उसके बाद मुझे थकान महसूस हुई तो फिर मुझे बिस्तर पर लौटने की इच्छा हुई.  लेकिन उस वक्त वह परिचारक आस्-पास दिखाई नहीं दिया.  अतः मैंने उपस्थित दो परिचारिकाओं से मदद माँगी.  मेरा एक-एक हाथ अपने कन्धे पर लेकर वे दोनों कुर्सी के दोनों ओर खड़े हो गए. तब मैंने खड़े होने की कोशिस की.  लेकिन मेरे पैर कितने कमजोर हो चुके थे तथा उलटी दिशा की ओर चल रहे थे; इस बात का मुझे क़तई अंदाजा न था.  फलतः मेरे शरीर का पूरा वजन उन दोनों परिचारिकाओं पर पड़ा और हम तीनों बुरी तरह से जमीन पर गिरने लगे. ठीक उसी क्षण पता नहीं कहाँ से एक वरिष्ठ परिचारिका आई, उसने मेरे दोनों पैर उठा लिए और हल्के से घुमाकर बिस्तर पर रख दिया जिससे कि मै बिस्तर पर बैठ सका. मै संभलते हुए जब ठीक तरह से बैठ गया तो नज़रें उठाकर उस वरिष्ठ परिचारिका को धन्यवाद देने के लिए देखा तो पाया कि वह तब तक जां चुकी थी. मैंने दूसरे दोनों सिस्टर से उसके बारे में पूछा तो वे कुछ बता न सकी.  बाद में हमने स्टाफ के अन्य लोगों से भी पूछताछ की लेकिन किसी को भी उस वरिष्ठ सिस्टर की तरह दिखने वाली किसी सिस्टर के बारे में कुछ भी पता न था.  अब मेरे मन में कोई संदेह नहीं था कि बाबा ख़ुद उस समय मेरी मदद के लिए उस सिस्टर के स्वरूप में उपस्थित हुए थे.  वे तो हमारे अस्तित्व के हर पल हमारे साथ हैं, केवल हम ही उन्हें पहचानने में असमर्थ होते हैं.  कमजोरी दूर करने के लिए सिवाय कुछ प्रोटीन पाउडर तथा विटामिन की गोलियों के अब मुझे और किसी दवाई की आवश्यकता नहीं है.  बाबा के प्रेम तथा कॄपा से अब मै पूरी तरह से स्वस्थ हो चुका हूँ.

Post # 26; 13.12.2016: "दिमाग का बोझ हलका करना"

“दिमाग का बोझ हलका करना”

लेखक – तिलक घोषाल

(एक हरनाथ भक्त के वर्णन के आधार पर)

(Hindi translation: Shyam Sen)

जीवन की सन्ध्या बेला में प्रभु ने मुझे अत्यन्‍त प्यार से कुछ हरनाथ-प्राण भक्तों के साथ संपर्क साधने का अवसर प्रदान किया है.  उनमें से कुछ के साथ मेरा फोन तथा ईमेल द्वारा विचारों का आदान-प्रदान चलता रहता है जिससे कि मै बहुत ही लाभान्वित होता हूँ. एक ऐसी ही वार्तालाप के दौरान एक भक्त – भाई ने उनकी पुत्रवधु के एक अत्यन्‍त सुंदर अनुभव को साझा किया जिसे कि मै यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ.  लेकिन उन सज्जन की इच्छा का आदर करते हुए मै उनका नाम नहीं बता पा रहा हूँ.

विवाह के उपरान्‍त अपने ससुराल में ही उस पुत्रवधु का कुसुम हरनाथ जगत् से प्रथम परिचय हुआ. ठाकुर तथा माँ के प्रति उस परिवार के हर सदस्य के प्रगाढ़ प्रेम एवं भक्ति  की अनुभूति उसके दिल को छू गयी.  उसका ‘कुसुम-हरनाथ परिवार’ का सदस्य बनना तो निश्चित रूप से तय था (ठाकुरजी ने कहा था “में अपने दल के सदस्य स्व्यं ही चुनूंगा) क्योंकि वह कुसुम हरनाथ की ओर निरंतर आकृष्ट होती गयी. और फिर इस जगत् में ऐसे घुलमिल गयी जैसे कि दूध में चीनी.  उसने ठाकुरजी तथा उनके ‘निरंतर कृष्ण नाम’करने के उपदेश के बारे में सुना, पढ़ा एवं आत्मसात किया.  लेकिन तत्पश्चात ही उसके मन में एक समस्या उत्पन्न हुई.  एक देवता (कृष्ण) जिसकी 16108 पत्नियां हों उसे पूजा कैसे जां सकता है?  यह सवाल उसे हरपल कुरेदने लगा.  एक पढ़ीलिखी आधुनिक महिला होने के नाते उस कृष्ण के प्रति भक्ति की बात को मानने के लिए उसका मन किसी भी तरह तैयार नहीं था.  और इस कारण से उसके दिमाग पर दुविधा तथा संदेह का बोझ घर करने लग गया था. और ठीक उसके पश्चात यह घटना घटी.

अभी हाल ही में एक दिन उन सज्जन के पुत्र ने उन्हें अत्यन्‍त उत्साह के साथ फोन पर बताया कि उसकी पत्नी अर्थात उन सज्जन की पुत्रवधु को उस दिन सबेरे एक अद्भुत अनुभव हुआ. ऐसा कहकर लड़के ने फोन बहू को पकड़ा दिया ताकि वे उसी से सीधे सुन सकें. तबतक वह बेचारी बहू उस घटना के प्रभाव से अपने आप को पूरी तरह से मुक्त भी न कर पाई थी. उसने धीमे तथा कांपते स्वर में अपने ससुरजी को उस घटना का निम्नलिखित वर्णन सुनाया:

उस दिन वह अपने सुबह के नित्य-नैमित्तिक पूजा में व्यस्त थी, यद्द्यपि उसका मन कृष्णजी के बहु-परिवारी होने की बात में उलझा हुआ था.  थोडी देर बाद अचानक उसे अपने कन्धे पर एक हाथ का कोमल स्पर्श अनुभूत हुआ. चौंककर जैसे ही वह पीछे मुड़ी यह देखने के लिए कि कौन है, उसे मानो साँप सूँघ गया.  उसने देखा कि ठाकुर हरनाथ स्व्यं मुस्कुराते हुए खड़े थे.  फिर प्रभु ने सिंहासन पर रखे कृष्ण के फोटो की तरफ़ इशारा करते हुए मधुर स्वर में कहा – “माँ वह और मै तो एक ही हूँ.” बस तुरन्‍त उसके बाद वे जिस तरह अचानक प्रकट हुए थे उसी तरह अचानक अंतर्धान हो गए. वह बिचारी अपने आँख और कान पर विश्वास न कर पाते हुए काँपते काँपते मानो जड़ पदार्थ सी बैठी रह गयी. लेकिन हाँ उसके दिमाग का बोझ उतर चुका था अब न कोई दुविधा थी न कोई संदेह.

यहां यह कह दूं कि उनकी पुत्रवधु एक शिक्षित, वरिष्ठ व्यवसायिक, ऊँचे ओहदे पर एक मशहूर संस्था में कार्यरत ऐसी महिला है जिसे अकसर देश विदेश के दौरे पर भी अकेले जाना पड़ता है – संक्षेप में एक बुद्धिमती, जिज्ञासु, सुदृढ़मना, आधुनिक सोच रखनेवाली महिला.  शायद यही कारण था कि ठाकुरजी को दृढ़तापूर्वक खुलेतौर से उसके साथ सम्वाद करना पड़ा, जबकि वे दूसरों के साथ इशारों में ही अपनी बात कहते हैं.  वास्तव में पागल हरनाथ के पास विभिन्न सोच वाले भक्तों के मन का बोझ उतारंने के लिये अनगिनत एवं निराली विधियां है. एकही डन्‍डे से हर किसी को हांकना उन्हें पसंद नहीं. ठाकुरजी हर भक्त की व्यक्तिगत् ज़रूरतों का खयाल रखते हुए प्रत्येक की समस्याओं का अपने तरीके से प्यार पूर्वक निदान ढूंढते हैं. एकमेवाद्वितीयम तो इसी कारण से ही माने जाते हैं.

Post # 25; 27.11.2016 - "हमारे चिर पथ प्रदर्शक": स्व. बिजोय कॄष्ण बैनर्जी का अनुभव

“हमारे चिर पथ प्रदर्शक”: स्व. बिजोय कॄष्ण बैनर्जी (ठाकुर के पौत्र) का अनुभव

(श्रीमती धीरा बैनर्जी के वर्णन के अनुसार तिलक घोषाल द्वारा लिखित)

(हिंदी अनुवाद – श्याम सेन)

यह घटना धीरा मामी के पति श्री बिजोय कृष्ण बैनर्जी – हमारे बीजू मामा – ठाकुर तथा माँ के पौत्र – के एक अद्भुत व्यक्तिगत् अनुभव से संबंधित है.  धीरा मामी की पूर्ण सहमति से मै इसे सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.

मामा को गुस्सा बहुत जल्दी आता था और वह उनके नजदीकियों को झेलना पड़ता था.  उनका दृढ़ विश्वास था कि ‘कुसुम हरनाथ नाम’ का दूर दूर तक प्रचार करना ही भक्तों का प्रधान कर्तव्य होना चाहिये ताकि परिधि के बाहर के हजारों लोग हमारे दल में शामिल हो सकें और उन्हें कुसुम-हरनाथ से प्रेम, कृपा तथा संरक्षण प्राप्त हो सके. कुछ समय बीतने के बाद उनकी यह धारणा बन चुकी थी कि ज्यादातर भक्त भजन, कीर्तन, नॄत्य, गीत में ही समय बिताते हैं – उनके पास ठाकुर के असली काम के प्रति न तो झुकाव है और न कोई उत्साह.  इस कारण से उनके मन में एक गहरी निराशा फैलने लगी थी. परिणामस्वरूप जो भी भक्त सोनामुखी आकर उनसे मिलने जाता था उसी पर वे निर्दयता से बरस पड़ते थे.  भक्तों के साथ उनके इस तरह के व्यवहार से धीरा मामी न केवल बहुत शर्मिन्दा होती थीं बल्कि उन्हें एक भय सा लगा रहता था कि भक्तों की अवमानना के कारण उनके परिवार पर कोई भारी आपदा न आ पड़े. मामी कई बार मामा को समझाती थी कि वे इस तरह का कठोर व्यवहार न करें.  मामा को ख़ुद भी इसका अफसोस रहता था. लेकिन उनके हिसाब से ठाकुर के कार्य में वांछित उन्नति न होते हुए देख् अपने आप को संभाल भी नहीं पाते थे.

उन दिनों मामा, मामी तथा उनका पुत्र राना ‘हरनाथ शान्ति कुटीर’ के ठीक सामने वाले मिट्‍टी के दुतल्ले मकान “बिशेर बाड़ी” में रहते थे.  वे उस मकान के तल-मंझले में रहते थे जिसमे दो छोटे कमरे, एक बरामदा तथा बाग़ का एक टुकड़ा शामिल थे.  इसी बरामदे में वे अभ्यागतों एवं मित्रों से मिलते थे.  सन् 1980 या ’81 की बात है, एक रात खाना खाने के बाद मामा ने कहा कि उन्हें नींद नहीं आ रही – अतः वह कुछ समय बरामदे में बैठेंगे. फलस्वरूप मामी अन्दर कमरे में चली गयीं और सो भी गयीं. अगले दिन सुबह मामी ने देखा कि मामा न केवल अस्वाभाविक रूप से चुप थे बल्कि विचलित तथा बेखबर भी लग रहे थे. मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर महसूस होने से मामी उनके मस्तिष्क में क्या चल रहा है इसका पता लगाने के लिए उन्हें कुरेदने लगी. पहले थोड़ी देर तक टालने के पश्चात मामा आखिरकार बोले “कल रात एक असाधारण घटना घट गयी”.  और फिर उन्होंने विस्तार से बताया —

जब वह बरामदे में एक कुर्सी पर बैठे थे, रात का अन्धेरा गहराने लगा था और सिवाय झिंगुरों के सतत् संगीत के चारों तरफ़ बिलकुल सन्नाटा तथा एक अद्भुत सा ठहराव था. कितनी देर हो चुकी होगी इसका उन्हें पता नहीं था.  अचानक एक हाथ का कोमल स्पर्श अपने कन्धे पर उन्हें अनुभूत हुआ. वे तुरंत मुड़े लेकिन उस घुप्प अन्धेरे में कुछ समझ नहीं पाये. फिर उसी तरह अचानक अपने कान के निकट किसी के गर्म प्रश्वास की अनुभूति हुई. यह सब क्या हो रहा है इसका पता लगाने की छटपटाहट में वह थे ही कि एक धीमे स्वर ने उनके कान में फुसफुसाया — “बाबा, मेरे नाम-प्रचार के बारे में तुम क्यों चिन्‍तित हो रहे हो, छोड़ो परेशान मत हो.” और उसके बाद वह स्पर्श, वह गर्म प्रश्वास, या फिर वह फुसफुसाता स्वर ठीक जैसे अचानक प्रकट हुए थे वैसे ही अचानक गायब हो गये.

उस दिन के पश्चात अपने देहावसान तक मामा ने कभी ‘उनके’ नाम-प्रचार के सम्बन्ध में एक शब्द भी नहीं बोला.

ब्लॉग पोस्ट # 24; 12.11.2016 - "कर्ता माँ का प्यार भरा आशीर्वाद"ঃ पल्लब मित्र (बुलबुल), कोलकाता

“कर्ता माँ का प्यार भरा आशीर्वाद”ঃ पल्लब मित्र (बुलबुल), कोलकाता

(पल्लब कुसुमहरनाथगत प्राण श्री लाल गोपाल मित्र – पुराने भक्तों के ‘लालू दादाबाबू’ – के पौत्र हैं)

Himdi translation: Shyam Sen

पिछली चार पीढ़ियों से हमारे परिवार का हर सदस्य ठाकुर हरनाथ तथा माँ कुसुम कुमारी को क्रमश: कर्ता बाबा तथा कर्ता माँ के रूप में ही जानता है (कर्ता का अर्थ है परिवार का सबसे बड़ा). मेरे दादु (दादाजी) – श्री लालगोपाल मित्र – कर्ता माँ के अत्यन्त प्रिय थे. वे उन्हें दिदिमा (नानी) कहकर पुकारते थे और कर्ता माँ उनको लालू बुलाती थीं.  माँ का लाड़-प्यार अपने लालू के लिए उतना ही सीमाहीन था जितना कि उनके चरणों में दादु की भक्ति तथा संपूर्ण समर्पण था. जिस घटना का मै यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ वह मैंने मेरी नानी (पुराने भक्तों की ‘कापुदी’) से सुना था.

ब्रिटिश जमाने की मशहूर कंपनी ‘बर्ड & हेल्गर्स’ में दादु कैशियर थे.  एकबार कर्ता माँ शाम की गाड़ी से बंबई जां रही थीं;दादु ने जल्दी से अपना काम निपटाया और उन्हें विदा करने के लिए हावड़ा स्टेशन पहुँचे. कोलकाता एवं आसपास के इलाकों से बहुत सारे अन्य भक्त भी उसी उद्द्येश्य से वहां एकत्रित हुए थे.  गपशप, टोकाटाकी, हँसी मजाक में पूरा वातावरण रमा हुआ था. इसी बीच जैसे ही ट्रेन चलने को हुई, कर्ता माँ ने अचानक आदेश दिया – “लालू ट्रेन में बैठो”.  इस तरह बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक आदेश प्राप्त कर दादु बुदबुदाये – “लेकिन दिदिमा मेरे पास कैश बक्से की चाबी है – यदि वह मैंने किसी को न सौंपा तो द़फ्तर का काम बुरी तरह प्रभावित होगा. इसके अलावा बिना छुट्टी मजूर हुए गैरहाजिर रहना समीचीन नहीं होगा. और कपड़े-लत्ते भी मै साथ लेकर नहीं आया हूँ.  मै कैसे जां सकता हूँ दिदिमा?” कर्ता माँ ने कहा – “मैंने तुमसे गाड़ी में बैठने के लिए कहा है – कहा है कि नहीं?”बस बात ख़तम. इसके बाद बग़ैर कुछ कहे दादु ट्रेन में बैठ गए. लेकिन बर्ड कंपनी जैसी संस्था में इस तरह की अनुशासनहीनता तथा अपने सख्त बॉस की चिन्ता उन्हें सताती रही और उन्होंने मन ही मन मान लिया कि नौकरी अब गयी.  इधर जब एक साथी भक्त ने आकर मेरी नानी को यह सूचना दी वो तो आसमान से गिरीं कि दादु ने इस तरह का गैर जिम्मेदाराना काम किया कैसे.  अब तो उनकी नौकरी जरूर जायगी और वह कैसे घर के इतने लोगो का अन्न-संस्थान करेगी.

खैर दस रोज़ बाद दादु कोलकाता लौटे. अपने सख्त अँगरेज बॉस की डॉट तथा नौकरी से निकाल बाहर होने की चिन्ता से ग्रस्त होकर किसी तरह अगली सुबह दादु द़फ्तर पहुँचे और चुपचाप कैश बक्से के साथ वाली अपनी सीट पर बैठ गए. समय बीतने लगा, फिर भी न तो बॉस ने बुलाया और न किसी सह-कर्मी ने उनसे इतनी लंबी गैरहाज़िरी का कारण पूछा. हालाँकि इससे कुछ अटपटा सा तो जरूर लग रहा था लेकिन साथ-साथ एक राहत भी महसूस होने लगी थी. धीरे-धीरे एक साधारण दिन की तरह सारा दिन बीत गया और आशंका के अनुसार कुछ घटा नहीं. नौकरी जाना तो दूर, इतने दिन गायब रहने के बारे में किसी ने एक सवाल तक नहीं पूछा. मानो वे कहीं गए ही न थे!! दादु को अब पूरा विश्वास हो गया था कि उनके गायब रहने की अवधि में लोगों ने एक और लालगोपाल मित्र को उनकी सीट पर काम करते हुए देखा होगा. शायद उन भक्तों के जीवन में ऐसा ही होता है जो अपने भगवान के चरणों में पूर्णतया समर्पित होते हैं. जय कुसुम हरनाथ.

Blog Post # 23; 25.10.16 - "स्वामी (बाबा) - हमारे पालनहार": श्रीमती व्ही एस सनथ कुमारी, बंगलोर

स्वामी (बाबा) – हमारे पालनहार”: श्रीमती व्ही एस सनथ कुमारी, बंगलोर

(तिलक घोषाल द्वारा सम्पादित तथा लेखिका द्वारा अनुमोदित)

(अनुवाद – श्याम सेन)

मैंने, kusumharaleelas.com ब्लाग की 15 वीं प्रस्तुति में, अपना परिचय देते हुए, हमारे जीवन में स्वामी (बाबा) की कुछ लीलाओं का ब्योरा दिया था. आज दो और घटनाओं का उल्लेख करना चाहती हूँ जो यह दर्शाती हैं कि स्वामी (बाबा) किस तरह से  सर्वदा हमारी निगरानी तथा रक्षा करते हैं.

घटना – 1

एकदिन मै और मेरे पति स्कूटर से घर लौट रहे थे. ट्राफिक काफी था. उस भीड़ भरे रास्ते पर एक गाय को विपरीत दिशा से हमारी ओर आते हुए देखा. टक्कर तो होनी ही थी क्योंकि सड़क का एक हिस्सा मरम्मत के लिए रखे लोहे की छड़ों से घिरा था, ऊपर से ट्राफिक इतनी ज्यादा. टक्कर की स्थिति में हम नीचे गिरते और किसी वाहन से कुचले जाते. साक्षात मृत्यु के साथ हम आमने-सामने खड़े थे ऐसा लग रहा था. तभी आखिरी क्षण में गाय मुड़ी और लोहे के छड़ों पर चढ़ गयी. ऐसा लगा मानो किसी ने उसे सींग से पकड़कर हटा दिया. लेकिन गाय के आस्-पास तो कोई था ही नहीं. इस तरह मौत के मुँह से चमत्कारिक बचाव के कारण हम दंग रह गए. आज भी जब यह घटना याद आती है तो मेरे नैन उनके प्रति कृतज्ञता के आंसुओं से भर जाते हैं. मै अब नियमित रूप से माँ तथा स्वामी की ‘पद-सेवा’ करती हूँ. क्योंकि मुझे लगता है कि भक्तों को विपदाओं से बचाते-बचाते वे भी थक जाते होंगे और उनके हाथ-पैर दुखते होंगे न?

घटना – 2

एकबार हम छह लोग – मेरा भाई/भौजाई, बड़ी बहन/जीजाजी, मेरे पति तथा मै – सिंगापुर घूमने गए. दुर्भाग्यवश वहां पहुँचते ही हवाईअड्डे पर ही मेरे पति को स्ट्रोक हो गया. डाक्टरों ने तुरंत उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने की सलाह दी. विदेश भूमि पर एक स्ट्रोक-पीड़ित मरीज के साथ तथा पास में पैसे भी सीमित – हम तो पूरी तरह से हिल चुके थे. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना है ये तो हम समझ चुके थे लेकिन एक अन्य देश में, जहां किसी को जानते भी न थे, हम क्या कर सकते थे. बातचीत में भाषा का भी व्यवधान था. खैर किसी तरह डाक्टरों को समझाया कि हम अगली फ्लाइट से वापस जाकर इन्डिया में उन्हें अस्पताल में भर्ती करेंगे. तुरंत वापसी की बुकिंग करा ली तथा सुबह का इंतज़ार करने लगे. उस मनोदशा में स्वामी से सिर्फ़ मेरे पति के ठीक हो जाने की प्रार्थना एवं अविरत ‘कुसुमहर – कुसुमहर’ जपने के सिवाय हम रातभर और कुछ न कर सके.

जैसे जैसे रात ढलती गयी हमने देखा कि उनके शरीर में कुछ हलचल हो रही थी तथा उनकी अवस्था में भी धीरे-धीरे सुधार हो रहा था. और आश्चर्य की बात, दिन निकलते तक वह पूरी तरह स्वस्थ हो चुके थे. एक स्ट्रोक पीड़ित व्यक्ति बिना विशेष इलाज के इतनी जल्दी कैसे पूरी तरह ठीक हो गया? हमारे आंखों के सामने स्वामी की  लीला हो रही थी. मेरे पति की हालत कितनी ज्यादा सुधर चुकी थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जां सकता है कि हम अपनी ट्रिप पूरी कर सके. इतना ही नहीं हम ‘सेंटोसा द्वीप’ भी गए जहां चोटी के पार्क तक जाने के लिए उन्होंने बिना किसी थकान के सीढियां भी चढ़ ली. इस अनुभव ने मेरे जीवन में उनके अनगिनत लीलाओं की तुलना में कहीं बहुत ज्यादा परिवर्तन ला दिया. इस घटना ने मुझे माँ और स्वामी के चरण कमलों में पूर्ण समर्पण के लिए अत्यन्त तेजी से आगे कर दिया.  अपने बच्चों के लिए उनके स्नेह् तथा प्रेम की कोई तुलना ही नहीं….

Blog Post # 22; 16.10.2016 - "बालाजी दर्शन की कामनापूर्ति": श्यामली चटर्जी (ठाकुर के पौत्र श्री बसंत कुमार बनर्जी की पुत्री),

“बालाजी दर्शन की कामनापूर्ति”: श्यामली चटर्जी (ठाकुर के पौत्र श्री बसंत कुमार बनर्जी की पुत्री)

(Hindi translation: Shyam Sen)

मेरे पुत्र ने चेन्नई के ताम्बरम स्टेशन के पास एक फ्लैट खरीदा था और 2012 में हम अर्थात मै, मेरे पति, बहन, जीजाजी तथा उनकी दो बेटियां, उसके उस फ्लैट के गृहप्रवेश के लिए वहां गए थे.  उन दिनों वह टी.सी.एस. के चेन्नई ऑफिस में बतौर इंजीनियर कार्यरत था.

एक दिन हम सभी बालाजी दर्शन के लिए सुबह की बस से तिरूमला जाकर, स्पेशल दर्शन की टिकट लेकर मन्दिर में प्रवेश के लिए सैकड़ों लोगों के साथ लाइन में खड़े हो गए. थोड़ी दूर आगे चलने के बाद पता चला कि मन्दिर के अन्दर मोबाइल और कैमरा वर्जित है. कैमरा तो नहीं था लेकिन मेरे तथा बहन के पास मोबाइल था. हमने सोचा कि उसे बंद कर बैग के भीतर रख लेना काफी होगा. वैसा ही किया हमने लेकिन इस बात का दुःख तो रहा कि भगवानजी की फोटो नहीं ले पाएँगे. अत्यन्त धीरे धीरे लाइन आगे बढ़ने लगी और हम चेक पाईन्‍ट के क़रीब पहुँच गए. वहां सभी की मेटल डिटेक्टर
द्वारा तलाशी ली जां रही थी. हम घबराये कि अगर यहां मोबाइल की वजह से हमे रोक दिया गया तो दर्शन करना संभव न हो पायगा. लेकिन सोचने का वक्त तब कहां था? मुसीबत में पड़ने से आदत के मुताबिक ‘कुसुम हर’, ‘कुसुम हर’ जपना शुरू हो चुका था. हैरत की बात यह हुई कि बिना किसी समस्या के हम चेक पाईन्‍ट पर कर गए. लेकिन हमे यह समझ में नहीं आया कि मेटल डिटेक्टर ने मोबाइल की उपस्थिति कैसे नहीं पहचानी.

खैर रात दस बजे मुख्य द्वार खुला, लाइन तेजी से आगे बढ़ी और लोग ‘गोविन्दा, गोविन्दा’ के जोर से नारे लगाने लगे. लेकिन जैसे ही हम प्रवेश द्वार के निकट पहुँचे हमे फिर समस्या नजर  आई. वहां एक और चेक पोस्ट पार करना था.  वहां
सुरक्षा इतनी तगड़ी थी कि कोई मक्खी भी बच कर निकल न पाए. प्रत्येक व्यक्ति की सघन तलाशी के बाद मेटल डिटेक्टर कठड़े में से गु्ज़रने के बाद ही उसे अन्दर जाने दिया जां रहा था. हमारे लिए बचने का अब कोई उपाय न था. इतनी गर्मी में पसीना-पसीना होकर भीड़ में धक्का खाते हुए आखरी मंज़िल नजर आने के बाद हमारी आशा लुप्त होती प्रतीत होने लगी.  मुझसे अब रहा न गया और मै रो पड़ी साथ में ऊँची आवाज़ में कुसुम हर जपने लगी. मेरे बहन की दोनों बच्चियां भी मेरे साथ रोने लगी और नाम जपने लगी. और तब मैंने मेरे प्रभुजी से कहा – “तुम कहते हो कि हर पग पर मै तुम्हारे साथ हूँ, अब जैसे भी हो इस बाधा को पार कराओ तथा हमे दर्शन दिलाओ.”

कुछ देर बाद प्रवेश द्वार के पास भीड़ में धक्का-मुक्की के साथ काफी हलचल होने लगी.  ठीक उसी वक्त साधु बाबाओं का एक दल गेट के समीप पहुँचा. पता नहीं हमे उस वक्त क्या सूझा, हम दौड़ कर उस दल के बीच से मेटल डिटेक्टर कठड़े में से होते हुए अन्दर गर्भ-गृह तक जाने वाली सड़क पर भीड़ में शामिल हो गए.  हालाँकि हलचल के चलते हमे भाग कर अन्दर जाने का मौका तो मिल गया, लेकिन मेटल डिटेक्टर कठड़े में से निकलते वक्त बीप-बीप की तीव्र ध्वनि शुरू हो गयी. नतीजतन बिचारे साधुबाबाओं को रोककर उनकी फिर से तगड़ी तलाशी ली गयी. हमे पता नहीं कि हमने कितना पाप किया लेकिन उस वक्त एक अपराध बोध के कारण हम एक कोने में छिपकर सारा माजरा दूर से देखने लगे. प्रत्येक साधुबाबा को सिर से पैर तक टटोलने के बाद जब कुछ न मिला तब जाकर सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें अन्दर आने दिया. और राहत के साथ साथ हमे भी तनिक दोष मुक्ति का एहसास हुआ. इस तरह हमारी दीर्घ दिनों से लंबित बालाजी दर्शन की मनोकामना पूरी हुई.

मैंने हमारे दयालु प्रभु के चरणों पर प्रणाम किया तथा उनसे माफी माँगी. आज भी जब वो वाक़या याद आता है लगता है किस तरह हम प्रभु की कृपा से बाल-बाल बचे थे. हर दिन यह एहसास कि प्रभु हर पल हमारे साथ है और दृढ़ होता जाता है. हे प्रभु आपके चरणों पर सर्वदा हमारी मति बनी रहे यही मेरी प्रार्थना है.

Blog Post # 21; 25.09.2016 - "मौत के मुँह से लौटना - हमारे चिरन्तन रक्षाकर्ता ठाकुरजी": हरेशभाई झवेरी, मुम्बई

“मौत के मुँह से लौटना: हमारे चिरन्तन रक्षाकर्ता ठाकुरजी”: हरेशभाई झवेरी, मुम्बई

(Hindi translation: Shyam Sen)

सन् 1968 – मै 22 साल का और मेरा छोटा भाई प्रदीप क़रीब 10 साल का रहा होगा.  उन दिनों वह घर की कार से ही स्कूल जाना-आना करता था. एक दिन चूँकि हमारी कार सर्विसिंग के लिए गई हुई थी वह एक टैक्सी लेकर घर लौट रहा था.  थोड़ी दूर चलने के बाद उसने देखा कि विपरीत दिशा से एक बस आ रही थी, और जैसे ही क़रीब आई, बस के ड्राईवर ने अचानक नियंत्रण खो दिया. नतीजा – कार तथा बस की पूरी गति में रहते  हुए सीधी भिड़न्‍त हो गई. टैक्सी चालक की तो घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई,प्रदीप चूंकि ड्राईवर के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठा था, वह बुरी तरह से घायल हो गया. उसकी खोपड़ी में दरार पड़ चुकी थी और जब तक उसे अस्पताल पहुँचाया गया तब तक वह प्रगाढ़ बेहोशी की स्थिति में चला गया था. बची-खुची कसर पूरी करने के लिए साथ में उलटी भी होने लगी.  सिर्फ़ इतना ही नहीं, पेट में से ऊपर की ओर आने वाली  सामग्री उसके गले में भयानक रूप से अटकने लगी. इसलिये सब कुछ छोड़ डाक्टरों को पहले  ट्रेकिआटमी अर्थात उसके गले के सामने वाले हिस्सेमे एक छेद करना पड़ा ताकि श्वासनली द्वारा फेफड़ों तक वायु पूर्ति ठीक से हो सके.  खोपड़ी की दरार के इलावा उसके शरीर के दूसरे हिस्सों में भी कई फ्रैक्चर हो चुके थे.  और तो और चिकित्सा प्रक्रिया के दौरान ही उसके दिल की धढ़कन दो-दो बार बन्‍द हो गयी. दोनों ही बार डाक्टरों ने उसे किसी तरह से पुनर्जीवित कर दिया.  इससे आप आसानी से अन्‍दाज़ा  लगा सकते हैं कि मेरे भाई की हालत उस वक्त कितनी सन्‍गीन थी.  हालाँकि डाक्टरों ने बहुत मेहनत की लेकिन स्पष्टतः उनको भी उसके जीवित रहने की कोई आशा नहीं थी.

लेकिन मेरी माँ – रुक्मिणी देवी, ठाकुरजी के प्रति अपनी सुदृढ़ भक्ति तथा विश्वास के चलते, इस सच्चाई को हर पल नकारती रही.  जैसे तीन दिन तक एक के बाद एक ऑपरेशन प्रदीप के शरीर पर होते रहे, ठीक वैसे ही मेरी माँ ऑपरेशन थियेटर के बाहर  बैठकर बिना एक घूँट भी पानी पीये ठाकुरजी का नाम जपतीं रही – “कुसुमहर शरणम्‌  मम”.  तीन दिन तथा शरीर के अलग-अलग हिस्सों पर विभिन्न शल्यक्रियाओं के पश्चात मेरे भाई को अन्‍तत: गहन चिकित्सा वार्ड में स्थानांतरित किया गया. सभी डाक्टर इस चमत्कारपूर्ण शारीरिक पुनर्जीवन से ख़ुद ही अत्यन्त आश्चर्यचकित थे.  फिर भी उन्हें पता था कि इतनी सारी तथा गहरी चोटों के कारण प्रदीप को एक बाधित  अस्तित्वमय जीवन यापन करना होगा.  मगर इस तरह के अपशकुनी विचार भी मेरी माँ को स्वीकार नहीं थे.  वे पूरी तरह से निश्चिन्त थीं कि प्रदीप पूरी तरह से स्वस्थ, सामान्य एवं आनंदित जीवन व्यतीत करेगा.

एक वर्ष उपरान्‍त मेरी माँ प्रदीप को सोनामुखी श्रीमन्‍दिर ले गयी.  न केवल उसको मौत के मुँह से वापस पुनर्जीवन की प्राप्ति हुयीं,वह उसके बाद सामान्य जीवन जीते हुए आज दो प्यारे-प्यारे बच्चों का गौरवशाली दादा है. ठाकुरजी के राज में भला हमें किस बात का डर?  जय श्री कुसुम हरनाथ.

Blog Post # 20; 18.09.2016 - "प्रभु - हमारे देवात्मा" अर्पिता मित्रा, कोलकाता

प्रभु – हमारे देवात्मा” अर्पिता मित्रा, कोलकाता

(वरेण्य भक्त श्री लाल गोपाल मित्रा – बहुतों के लिए लालू दादाबाबू – की पौत्रवधू)

[Hindi translation: Sri. Shyam Sen]

मै साथी भक्तों के साथ एक छोटीसी घटना बाँट रही हूँ. इस घटना से मुझे वह ठाकुर-संगीत याद आता है जिसकी पंक्तियां हैं – आमी रे तोदेर काछे नीति आछि पाछे पाछे, बारेक पागोल भेबे कोरिओ शोरोन…. [मै सदैव तुम्हारे पीछे-पीछे ही हूँ, एकबार पागल समझकर ही स्मरण कर लो….]

मुझे ठीक तारीख याद नहीं लेकिन घटना मई 2015 की है. मेरे पुत्र के बारहवीं  बोर्ड परीक्षा का नतीजा उस दिन प्रकाशित होना था.  लेकिन उसी दिन एक दूसरे राज्य के युनिवर्सिटी में भर्ती-परामर्श के लिए उसे (अपने पिता के साथ) रवाना भी होना था.  स्वाभाविक तौर पर मेरा लड़का निकलने से पहले अपना रेसल्ट जानने के लिए उत्सुक था. हमलोग बार-बार वेब-साईट चेक कर रहे थे, लेकिन बोर्ड ने उनके स्टेशन के लिए निकलने का समय होने तक रेसल्ट वेब-साईट पर लगाया नहीं था.  थोड़ी देर और रुके हम, पर ट्रेन छूटने का समय निकट आते देख् मेरे पति ने सुझाया कि जब रेसल्ट वेब-साईट पर लग जाय तब मै देखकर उन्हें फोन से सूचित कर दूं. पता नहीं उस वक्त मुझे क्या हो गया, मैंने वैसा करने से मना कर दिया और कहा कि इतनी मेहनत कर लड़के ने परीक्षा दी है अतः उसे ही अपना रेसल्ट सबसे पहले देखना चाहिये.  अन्‍तत: रेसल्ट  नेट पर आया, हमने उसके मार्क्स देख लिए और वो दोनो स्टेशन के लिए रवाना हो गए.

उनके ठीक-ठाक ट्रेन पर चढ़  जाने की ख़बर पाने के लिए मै घर पर उनके फोन का उत्सुकतापूर्वक बाट जोह रही थी.  कुछ समय पश्चात मुझे महसूस हुआ कि ट्रेन के छूटने का समय तो कब का गुजर चुका है फिर भी उन दोनों में से किसी एक का भी फोन नही आया. तब मै पागलों की तरह दोनों को बारी-बारी से लगातार फोन करने लगी लेकिन हर बार कोई उत्तर न मिलें.  तुरन्‍त मुझे खटका कि हो न हो कहीं कुछ बुरी तरह से ग़लत है. में घबरा गयी और प्रार्थना करने लगी, हालाँकि मुझे याद नहीं कि मै  प्रार्थना में क्या कह रही थी.  तनावपूर्ण क़रीब एक घन्‍टा बीतने के बाद आखिरकार मेरे बेटे ने फोन किया और ये बताया कि उनकी गाड़ी चूक गयी है और बोर्ड रेसल्ट देखने के लिए उन्हें मेरे द्वारा घर पर रोकने के कारण से मेरे पति बुरी तरह से नाराज हैं. मेरी तो सिट्टी-पिट्टी ग़ुम हो गयी यह सोचकर कि मेरी बेवक़ूफी के चलते मेरे बच्चे को एडमिशन से हाथ धोना पड़ा. मै रो पड़ी और मेरा दिमाग सुन्न हो गया.  लेकिन रोते-रोते भी मेरा कर्ता-माँ और कर्ता-बाबा का नाम जपना बन्‍द नहीं हुआ. (मेरे ससुराल में ठाकुर हरनाथ और माँ कुसुम कुमारी को कर्ता-माँ और कर्ता-बाबा कहकर ही सम्‍बोधित किया जाता है. कर्ता का अर्थ है परिवार प्रमुख.)

मै और करती भी क्या, चुपचाप बदहवास बैठी रही हूँगी क़रीब एक और घन्‍टा, तब जाकर फिर एकबार फोन की घन्‍टी बज़ी.  इस बार मेरे बेटे ने बताया: “हमे किसी तरह एक और गाड़ी में बर्थ रिजर्वेशन मिल चुका है और वह गाड़ी कुछ ही देर में छूटने वाली है.” क्या बताऊं मुझे जो राहत मिलीं उसका वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है.  मै बस मेरी पुकार सुनने और हमें उबारने के लिए कर्ता-माँ और कर्ता-बाबा को भरपूर धन्यवाद देने लगी.  दरअसल वास्तव में क्या हुआ था और कैसे एक क़रीब-क़रीब असंभव स्थिति सफलता में बदल गयी यह तो उनके लौटने के बाद ही पता चला.  घर से तो वे देर से चले ही थे, लन्‍च का समय होने के कारण टैक्सी भी नहीं मिल पा रही थी. अंत में जब टैक्सी मिलीं और वे स्टेशन पहुँचे तब तक गाड़ी जा चुकी थी.  मेरे पति तुरन्त बुकिंग ऑफिस गए और उन लोगों को बेटे के एडमिशन का परामर्श-पत्र दिखाकर किसी और गाड़ी में बर्थ के लिए विनती की. पर उन्होंने सीधे कह दिया कि किसी भी गाडी में उस दिन कोई जगह खाली नहीं है. मेरे पति बेचारे पूरी तरह से टूटकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुके थे. थोड़ी देर के बाद उन्हें ऐसा लगा मानो कोई उनसे कह रहा हो – “एकबार फिर कोशिश करो”.  अतः वे फिर उसी बुकिंग क्लर्क के पास गए और फिर से रिजर्वेशन की गुहार लगाईं. अबकी बार कुछ हलचल होने लगी.  क्लर्क ने सारी सूचियाँ फिर से ध्यानपूर्वक चेक किया और फिर उन्हें अप्रत्याशित रूप से बताया कि एक गाड़ी जो कि आधे घन्टे में चलेगी उसमे सिर्फ़ दो बर्थ उपलब्ध हैं. मेरे पति ने तुरन्त दो टिकट लिए और दोनों ट्रेन पर चढ़ गए. और इस तरह से मेरे पुत्र को कालेज में सीट मिलीं तथा उसकी पढाई जारी है.

इस घटना को क्या नाम दिया जाय? अगर वह सदा नजर न रखें रहे और न हिफाज़त करता रहे तो यह सब कैसे संभव था?हम सभी उनकी असीमित करुणा के आशीर्वाद से धन्य हैं.  आइए एकसाथ गायें – जय हरनाथ जय, कुसुम कुमारी जय…….

Blog Post # 19; 14.09.2016 - "भक्तों के भगवान कुसुम हरनाथ": श्रीमती मऊ दास, कोलकाता

भक्तों के भगवान कुसुम हरनाथ”: श्रीमती मऊ दास, कोलकाता

(Hindi translation: Shyam Sen)

कुसुम हरनाथ युगल मूर्ति की पूजा, मेरे ननिहाल में मै बचपन से ही देखती आई हूँ.  यद्द्यपि विधिवत पूजा वर्ष में केवल दो ही दिन – दुर्गापुजा की महा अष्टमी तथा माँ कुसुम कुमारी के जन्मदिन 16 दिसंबर – तक सीमित थी, माँ के द्वारा कुसुमहरनाथ नाम का जाप निर्विराम चलता रहता था. मेरे मामा लोग पीढ़ीयों से कुसुमहरनाथ भक्त हैं. मेरी माँ मेरे बचपन में ही गुज़र गयीं थीं. फलस्वरूप, मेरा पवित्र सोनामुखी धाम जाना नहीं हो पाया था. शादी के बाद ससुराल, कोलकाता आने पर भी सभी स्मृतियां मौजूद थीं.  दो चीज़ों का अभाव था मेरे पास – एक तो कुसुमहरनाथ युगल फोटो और दूसरा कोलकाता स्थित हरनाथ भक्त संप्रदाय के साथ परिचय.  और ये दोनों ही थीं मेरे लिए परमाकान्‍क्षित.  अनेक महापुरुषों, सन्‍तोंकी मूर्ति, फोटो इत्यादि बाज़ार में उपलब्ध होती हैं. लेकिन हरनाथ सम्प्रदायमें प्रचार की प्रधानता न होने से हमारे युगल प्रभु की प्रतिकृति प्राप्त करना बहुत ही कठिन था.

सन् 2007 में सान्‍सारिक तथा विभिन्न परिस्थितिगत कारणों से मेरे जीवन में एक के बाद एक तूफान आ रहा था.  एक तिनके की तरह मै सन्‍सार-सागर में डूबते-उतराते हुए स्थिर होने की लड़ाई लड़ रही थीं.  उस वक्त युगल फोटो का अभाव विशेष रूप से अनुभव कर रही थीं. ऐसा लग रहा था कि अगर मेरे पास युगल फोटो होता तो मै उसके सामने अपना दु:खड़ा रोकर हलका हो सकती थीं.  एक दिन याद आया कि मौसी ने एकबार कहा था कि कोलकाता के पालित स्ट्रीट के किसी मकान में माँ कुसुम कुमारी प्राय: जाया करती थी.  सोचा वहीं पता लगाया जाय. पति देवता को बताकर कुछ फायदा नहीं हुआ. उनका तर्क था कि कोलकाता शहर में मात्र एक रास्ते का नाम जानने से किसी मकान का पता लगाना संभव नहीं होता है. अतः फोटो मिलने की आशा क्षीण हो गयी.  क्षुब्ध हो, मन ही मन मैंने कहा -“अब मै तुम्हारे फोटो की और तलाश नहीं करूँगी.  अगर तुम भक्तवत्सल हो तो अपना फोटो ख़ुद ही लाकर दोगे.”

इसी बीच नियमानुसार ऑफिस जाने लगी.  एकडालिया रोड से रोज़ एक मिनी बस लेकर जाती थी.  मन ही मन उनके दरबार में अपनी खीज पेश करने के क़रीब हफ्ते भार बाद हर रोज़ की तरह एक बस में बैठी.  लेकिन सामने की ओर नजर जाते ही चौंक गयी. बस के आगे वाले शीसे (Wind Screen) पर बड़े बड़े हरफों में लिखा था – “जय कुसुम हरनाथ”!  मैंने तुरन्‍त बस की टिकट को संभाल कर रख लिया.  शाम को घर पहुंचते ही उनको सारी घटना बताकर वह टिकट उन्हें पकड़ा दिया.  उस टिकट की डोर धरे उन्होंने बस के मालिक श्री अशोक घोष जी का फोन नंबर पता कर लिया.  जब उन्हें हमने हमारी जरूरत से अवगत कराया, तब उन्होंने हमें एक मकान का पता एवं फोन नंबर दिया.  अचरज की बात ये है कि वह मकान हमारे मकान के पीछे वाली गली में ही स्थित था. संपर्क स्थापित होने पर पता चला कि उस मकान के मालिक और कोई नहीं बल्कि पीढ़ी दरपीढ़ी कुसुमहरनाथ भक्त परिवार के श्री स्वराज दत्त जी हैं.  इसके पश्चात वक्त गंवाये बग़ैर हम उनके घर पर हाजिर हुए और हमारी दीर्घ समय से लंबित मनोवान्‍छा पूरी हुई.  न केवल हमे युगल फोटो की प्राप्ति हुई बल्कि दत्त जी के माध्यम से कोलकाता के और दूसरे भक्तों से भी परिचित्‌ होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ एवं इसी तरह धीरे धीरे मेरा उस भक्त समाज में घुलमिल जाना भी संभव हो पाया. साथ ही एक ऐसा दृढ़ विश्वास मन में बैठ गया कि युगल प्रभु कुसुम हरनाथ कभी किसी भक्त का प्यार न ठुकराते हैं, न ठुकरा सकते हैं.  वे अन्‍तरयामी हैं – इसीलिये भक्त के अन्‍तर्मन की कथा व व्यथा सुनकर यथासमय स्व्यं उपस्थित हो जाते हैं.

Blog Post # 18; 14.09.2016 - "हमारे जीवन में प्रभुजी की उक्ति (‘I will choose my own flock’) की सार्थकता": श्यामली चटर्जी, बांकुड़ा

हमारे जीवन में प्रभुजी की उक्ति (‘I will choose my own flock’) की सार्थकता: श्यामली चटर्जी, बांकुड़ा

(श्यामली – ठाकुर हरनाथ के पौत्र श्री बसन्‍त कुमार बन्‍दोपाध्याय की पुत्री)

(Hindi translation: Shyam Sen)

मई 1976 की बात है.  मेरे पति श्री तरुण चटर्जी का NSNIS बंगलोर में प्रशिक्षण के लिए चयन हो गया था.  यद्द्यपि तुरन्‍त ही ट्रेन की टिकट खरीदी गयी लेकिन आरक्षण न मिला – उनका नाम प्रतीक्षा सूची में 115 नंबर पर था. ऐसी स्थिति में आरक्षण सूची में नाम आना प्रायः असंभव था.  यात्रा के पिछले दिन तक स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ. वह प्रशिक्षण उनके कार्य जीवन में प्रोन्नति में सहायक हो सकता था.  ऐसे एक प्रशिक्षण से चूक जाने की परिस्थिति मँडराते हुए देख् हम सभी अत्यन्‍त हतोत्साहित हो चुके थे.

खैर, आशंका से घिरे मन से वे यात्रा के दिन बांकुड़ा (जहां हम रहते थे) से खड़गपुर (जहां से गाड़ी पकडनी थी) गए.  हमारी शादी के बाद से ही मेरे पति की ठाकुरजी तथा कुसुम कुमारी माँ के प्रति भरपूर श्रद्धा थी. मैंने उनसे बस कुसुमहरनाथ नाम लेते रहने के लिए कहा.  वो समय से खड़गपुर स्टेशन पहुंचे और धड़कते हुए दिल के साथ ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगे. सोचने लगे इसके बाद उंन्हे क्या करना चाहिये क्योंकि बग़ैर आरक्षण के ट्रेन से दो रात की लंबी यात्रा करना असंभव था.

कुछ समय पश्चात ट्रेन के आगमन की सूचना घोषित हुई और ट्रेन भी स्टेशन पर आ पहुँची.  कुसुमहर जपते हुए वे टी.टी. के पास दौड़े और आशंकाकुल मन से पूछा कि उनके आरक्षण की कोई गुंजाइश है क्या? टी.टी. ने चार्ट देखा और बिल्कुल ही अप्रत्याशित रूप से कहा – “आपके आरक्षण की तो पुष्टि हो चुकी है. आप फलाने कोच में फलाने बर्थ पर चले जाइये.” एक बड़ी राहत की खुशी और उत्तेजना के साथ वो अपने कोच की तरफ़ भागे एवं आबंटित बर्थ पर आसीन हो गए.  हालाँकि उनकी खुशी का कोई ठिकाना न था फिर भी वो सोचने लगे कि 115 नंबर पर प्रतीक्षित स्थिति कैसे पुष्टिकृत आरक्षण में बदल गयी.

खैर, खाना खाने के बाद रात को उन्होंने बिस्तर बिछाया और सो गए.  शायद इतनी बड़ी चिन्ता से अचानक मुक्ति के कारण लेटते ही नींद आ गयी. देर रात उन्हें एक सपना भी आया – देखते हैं कि ठाकुरजी खड़े हैं मुस्कुराते हुए और उन्हे कृत्रिम डांटते हुए कह रहे हैं – “यह कैसा दस्तूर बाबा? क्या एक साधारण धन्यवाद का भी पात्र मै नहीं हूँ?”  चौंक कर मेरे पति की नींद खुल गयी.  उन्होंने हाथ जोड़कर प्रभुजी से क्षमा याचना की और बार-बार प्रणाम किया. उसी क्षण से मेरे पति बदल गए.  अब तो लगता है कि वे मुझसे बहुत ज्यादा उनकी भक्ति में लीन है.  प्रभु ने कहा न था कि वे अपना दल ख़ुद चुनेंगे? उनके चरण कमलों से हमारा मन कभी न हटे यही हमारी प्रार्थना है. जय श्री कुसुम हरनाथ.

Blog Post # 17; 14.09.2016 - "प्रभु महिमा अपरम्पार": व्ही. सुब्बाराव, वाइज़ाग

प्रभु महिमा अपरम्पार: व्ही. सुब्बाराव, वाइज़ाग

(Hindi translation: Sri. Shyam Sen)

एक रिश्तेदार की शादी हेतु मै 22 नवंबर 2015 को हैदराबाद गया था.  मेरी  पत्नी कुसुमा न जां सकी तथा मेरे घर वाइज़ाग में ही रुकी रही. हैदराबाद में मै अपने एक रिश्तेदार भाई के यहाँ ठहरा. उनका मकान कोने वाले प्लाट पर स्थित था एवं दूल्हा उनका भतीजा था. शादी अगले दिन होनी थीं. अतः जिस दिन मै पहुंचा उसी दिन, मै मेरा भाई तथा उसकी पत्नी शहर में और रिश्तेदारों से मिलकर शाम क़रीब 7.30 बजे घर पहुँचे. खाना खाने के बाद हम तीनों – सभी 70 पार कर चुके हुए – ठाकुरजी के बारे में और मेरी किताब “The Divine Glory Of Lord Haranath” पर रात 11 बजे तक चर्चा करने के उपरान्‍त मै अभ्यागत कक्ष में तथा मेरा भाई और उसकी पत्नी अपने कमरे में सो गए.

रात क़रीब ढाई बजे अचानक मेरे भाई की पत्नी की “चोर, चोर” चीख के कारण मेरी नींद खुल गयी.  तुरन्‍त मै और मेरा भाई अपने-अपने कमरे से दौड़ कर यह पता करने के लिए बाहर आए कि हुआ क्या.  शीघ्र ही बात समझ में आई कि जो लोग मकान में घुसे थे वे तब तक भाग चुके थे. लेकिन जो कुछ हमने इर्द-गिर्द देखा वह चौंकाने वाला था.  उनके शयन कक्ष की खिड़की में लगे जाली में सलीके से काट कर बनाया गया एक छेद, अगला और पिछला – दोनों दरवाजे खुले हुए, चाबी का गुच्छा (जिसमे कीमती चीजों से भरी अलमारी समेत सभी जगहों की चाबियां थीं) जीने पर –  इसी गुच्छे में अगले और पिछले दरवाजों की भी चाबियां थीं. मेरे भाई का मोबाइल उसके बिस्तर से उठाकर बैठक की दीवान पर डाला हुआ मिला. उसी दीवान पर का गाव-तकिया शयन कक्ष में पड़ा हुआ था – अन्‍दाज़ा किया जां सकता है कि उस तकिये से मेरे भाई या उसकी पत्नी जो भी हल्ला मचाये उसका दम घोंटने की योजना रही होगी.  जाहिर है कि घुसपैठियों ने घर के अन्‍दर काफी समय लगाकर सारा काम तरतीब से किया होगा.

सर्व प्रथम उन्होंने जाली में छेद बनाया तथा उसमे से किसी डन्‍डे के अगले छोर पर चुम्बक लगाकर उससे बिस्तर के पास रखे स्टूल पर से चाबी का गुच्छा खींच कर दोनों दरवाजे खोल लिए.  फिर मेरे भाई का मोबाइल उठाकर बैठक में ले गए और वहां से गाव-तकिया उठा लाये……… लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि डकैती का सारा साधन होते हुए भी वे भाग क्यों गए? एक तृतीय व्यक्ति के उपस्थिति की सूचना के सिवाय सारा कुछ उनके वश में था – भागने के लिए दोनों दरवाजे खुले हुए, कीमती वस्तुओं को लेने हेतु चाबी उनके पास, अगर कोई जगे या हल्ला मचाये तो उसे मारने के लिए गाव-तकिया – सब कुछ तैयार था उनके पास.  फिर भी पूरा मौका कब्जे में होते हुए भी सब कुछ छोड़ कर उनका भाग जाना एक बड़ी पहेली सी प्रतीत हो रही थी.

मेरा भाई, जो कि परम् हनुमान भक्त है, बाद में मुझसे कहने लगा कि तुम्हारे साथ तुम्हारे बाबा हरनाथ भी हमारे यहां आए हैं.  उन्होंने ही हमारे संपत्ति के साथ साथ हमारे प्राणों की भी रक्षा की.  भाई ने ही मुझसे इस घटना को भक्तों के साथ साझा  करने के लिए प्रेरित किया.  मुझे अत्यन्‍त खुशी है कि मै इसे प्रिय तिलक के kusumharaleelas.com पर साझा कर पा रहा हूँ. मैंने घटना के दूसरे ही दिन इसका विवरण हैदराबाद के श्रीमती माधुरी तथा श्रीमती गीता को भी सुनाया था.  घटना के उपरान्‍त मेरे मन में यहीशब्द दोहरा रहें हैं कि – “वे आए थे करने हमारा अन्‍त, पर दे गए स्फूर्ति अनन्‍त.”  प्रभु कीजय हो, प्रभु के नाम की जय हो, इसी तरह वे हमारे साथ सर्वदा हों – यही है मेरी विनम्र प्रार्थना.  सभी भक्तों को प्रणाम.

ब्लॉग पोस्ट # 16; 23.08.2016 - "बौड़ोबाबा का एकबार फिर मुझे तबाही की कगार से उबारना": तिलक घोषाल, कोलकाता

बौड़ोबाबा का एकबार फिर मुझे तबाही की कगार से उबारना”: तिलक घोषाल, कोलकाता

(Hindi translation: Shyam Sen)

पूरा कर्मजीवन बाहर-बाहर बिताने के कारण कोलकाता में सेवा निवृत्ति के उपरान्‍त डेरा डालना ही समुचित लगा. हमारी बिटिया एवं चिरन्‍जीव दोनों ही अन्य शहरों में बसे होने की वज़ह से मै चार लोगों (मेरे माता-पिता, मै और मेरी पत्नी) के रहने लायक एक अच्छा फ्लैट खोजने लगा.  लेकिन मेरे अन्त:करण में छिपी हुई एक इच्छा थी कि कितना अच्छा हो अगर फ्लैट में छोटा सा अध्ययन कक्ष हो; जहाँ मै पढ़ लिख सकूँ, अपने आप के साथ कुछ समय बिता सकूँ !! ……… खैर कुछ फ्लैट देखे – कोई भी पसन्‍द  लायक न था – या तो इलाका सही नहीं था, या दुकान-बाज़ार से दूर या फिर मेरे बजट के बाहर.

तत्पश्चात एक दिन प्रापर्टी-दलाल ने एक फ्लैट सुझाया और कहा कि ये जरूर आपको पसन्‍द आयगा. मै देखने गया और आकृष्ट  हो गया. न केवल हमारी सारी जरूरतें पूरी हो रहीं थीं, बल्कि उस फ्लैट में एक ऐसी वस्तु थी जिसने मुझे मोहित कर लिया. बैठक के एक कोने से एक सुंदर सी घुमावदार सीडी उपर एक हवादार बड़े कमरे तक पहुँच रही थी !!  वाह यह तो बिलकुल मेरी छिपी हुई इच्छा के मुताबिक है !! सिर्फ़ एक सवाल मन में उठा कि इतने अच्छे फ्लैट की कीमत इतनी कम क्यों है? लेकिन उस अनन्य अध्ययन कक्ष को हासिल करने की मन्शा मन में इस कदर घर कर गयी थी कि मै और किसी छोटे-मोटे सवालों से घिरना नहीं चाहता था.  अतः यह स्वर्णिम अवसर हाथ से निकल न जाय ऐसा सोचते हुए मैंने दलाल से कहा कि मै शाम को अपने माता-पिता तथा पत्नी को साथ लेकर आऊंगा और अगर उन्होंने हॉ कर दी तो साथ ही साथ अग्रिम राशि चुकता कर बात पक्की कर जाऊँगा.

हम सभी शाम को तय समय पर पहुँच गए.  रसोई के बारे में माँ तथा पत्नी की दो-एक छोटी-मोटी समस्याओं को छोड़, सभी की राय बन गयी कि हमें यह फ्लैट ले लेना चाहिये. मकान मालिक के प्रतिनिधि ने तुरन्‍त कहा तो फिर अग्रिम राशि का भुगतान कर बात पक्की कर ली जाय. लेकिन जैसे ही मै चेक लिखने के लिए तत्पर हुआ बिजली चली गयी.  हमे बताया गया कि अभी तुरन्‍त जनरेटर चल पड़ेगा और बिजली आ जायगी. और वाकई बिजली आ भी गयी.  लेकिन दुबारा फिर जैसे ही मै चेक लिखने के लिए तैयार हुआ, फिर बिजली गायब. वह प्रतिनिधि जरा शर्मसार हो गया.  इसके थोड़े समय के बाद जब बिजली आई और जब मै एकबार फिर चेक लिखने की प्रस्तुति करने लगा तभी माँ ने टोका – “आज इसे क्या हम रोक नहीं सकते? ऐसा लगता है कि ठाकुर नहीं चाहते कि यह कार्य आज संपन्न हो.”  चूँकि उस अध्ययन कक्ष के मेरे हाथ आने का सुनहरा मौका कहीं निकल न जाय इस डर का मै वशीभूत हो चुका था, उस वक्त माँ के कहने पर सच में मुझे थोड़ी खीज हुई. और मेरी मनःस्थिति भाँप कर दलाल लोग माँ को समझाने लगे – “ये एक संयोग मात्र है कि बिजली गयी, इसके लिए चिन्‍ता मत करें.” और तब मेरे पिताजी ने, जो कभी किसी को बिनमांगी सलाह नहीं देते, मुझसे कहा – “जब तुम्हारी माँ दुविधा में है, इसे फिलहाल किसी और दिन के लिए टाल देना ही ठीक होगा.” उनकी बातों से वस्तुस्थिति मेरे संज्ञान में आयी और मैंने उनसे अगले हफ्ते बयाना देने की बात कह दिया.

अगले ही दिन मेरे सबसे पुराने और करीबी दोस्त को फ्लैट के बारे में जो कुछ पिछले दिन घटा था संक्षेप में बताया.  फ्लैट का ब्यौरा सुनने के बाद वह मुझसे बहुत सारे सवाल पूछने लगा. मुझे हैरानी हुई कि ये आख़िर इतनी बातें क्यों पूछ रहा है.  उसने ये भीकहा कि मै फैसला कम से कम दो दिन के लिए रोक लूँ ताकि वह कुछ और इस बारे में पता लगा सके. मुझे थोड़ी खीज हुई कि पहले माँ और अब ये मेरा दोस्त मेरे उस अध्ययन कक्ष प्राप्ति की राह् में रोड़े डाल रहे हैं. लेकिन मेरे पास सिवाय रुकने के और चारा ही क्या बचा था?

उसी शाम को मेरे दोस्त ने मुझे फोन किया और चेताया – “तिलक, उस फ्लैट को छूना भी नहीं.  उस फ्लैट के मालिक हैं…………..(यहाँ मै उन सज्जन का नाम उल्लेख करना मुनासिब नहीं समझता हूँ.  इतना कहना काफी होगा कि वे एक वैश्विक धार्मिक संस्थान के सर्वेसर्वा हैं) और उनकी यह संपत्ति काले कारनामों, फसादों और मामलों में उलझी हुई है. अब वे किसी तरह से इससे छुटकारा पाना चाहते हैं.”  उसने यह भी बताया कि इन्हीं कारणों से इसके बारे में पिछले साल अखबारों में, स्थानीय टी.व्ही. पर काफी समालोचना एवं चर्चा हुई थी…………. यह सुनने के बाद मैंने भी अपनी ओर से कुछ तहकीकात की और पाया कि मेरे मित्र का कथन पूरी तरह से सही था. अर्थात अगर मै उस फ्लैट को लेने के लिए आगे और कदम बढ़ाता तो मेरे सेवानिवृत्ति निधि में से एक बड़ी राशि से हाथ धो बैठता क्योंकि वह फ्लैट कभी मेरे नाम से पंजीकृत नहीं हो पाता !!

मै अब भी हैरत में हूँ कि उस शाम को जैसे ही मै चेक लिखने लगा वैसे ही दो-दो बार बिजली गयी कैसे?…………. अचानक माँ को भी अग्रिम राशि देने से मुझे रोकने की सूझी ही क्यों?……… स्वभावतः वाक्सन्यमी मेरे पिताजी को भी मुझे फ्लैट बुकिंग  किसी अन्य दिन पर टालने की सलाह देना कैसे जरूरी लगा? …….. उस फ्लैट के उल्लेख मात्र से ही मेरे मित्र के दिमाग में खतरे की घन्‍टी क्यों बजी?……… और कैसे मेरे मित्र को साल भर पहले सुनी फालतू ख़बर याद आ गयी? ……….जय बौड़ोबाबा, बौड़ोमा.

Blog Post # 15; 15.08.2016 - हमारे जीवन में युगल प्रभु की लीला: श्रीमती व्ही एस सनथ कुमारी, बंगलौर

हमारे जीवन में युगल प्रभु की लीला: श्रीमती व्ही एस सनथ कुमारी, बंगलौर

(Hindi translation: Shyam Sen)

माँ कुसुम कुमारी और बाबा ठाकुर हरनाथ की असंख्य लीलाओं का अनुभव प्राप्त करने का सौभाग्य हमारे जीवन में हुआ है.  उनमे से कुछ अन्य भक्तों के साथ साझा  करने से पहले एक संक्षिप्त परिचय देना शायद जरूरी है.  मेरा नाम व्हिरलम सनथ कुमारी और मेरे पति श्री व्हिरल श्रीनिवास.  हम लोग बंगलौर के बाशिंदे हैं.  मेरे पिता श्री सत्यनारायण शेट्टि को एक वैकुंठ एकादशी के दिन श्रीविष्णु चरण कमल प्राप्त हुए.  मेरी माता श्रीमती नवरत्नम्मा नाम जप करते हुए माला हाथ में धरे ही परलोक सिधारी.  बचपन से ही मै ‘पंचाक्षर’ (अर्थात कु-सु-म-ह-र ये पाँच अक्षर) कागज पर लिखती थी और मन ही मन ठाकुर से कहती थी “बाबा मुझे इस नाम धन की करोड़पति बना दो जिससे कि मै यह पंचाक्षर कम से कम एक करोड़ बार लिख सकूँ. पता नहीं था कि वह मन्शा कब पूरी होगी. अन्त में बाबा ने ही मुश्किल आसान कर दी.  राजामुंदरी के भीमा रेड्डी दादा के साथ हमारे परिचय का मौका प्राप्त करा दिया.  दादा ने ही मुझे तथा मेरी दीदी ऊषा रानी को कुसुमहरा कोटि नाम यग्नम में शामिल कर लिया (अर्थात एक ही मार्ग पर चलने वाले दूसरे भक्तों के साथ).  अबतक मै उसी मार्ग पर चल रही हूँ और बाबा हर कदम पर मार्ग दर्शन एवं मेरे मन की सारी इच्छायें पूरी कर रहे है.

अनुभव – 1

विभिन्न कारणों से एकबार मेरे जीवन का बुरा समय चल रहा था. साथ शरीर भी स्वस्थ नहीं था.  क्रमशः मेरी हालत इस कदर बिगड़ी कि घोर निराशा ने मुझे जकड़ लिया.  आखिरकार जब और सहा न गया मै एकदिन टूटकर रो पड़ी तथा ठाकुर से कहने लगी – “बाबा, इस तरह का जीवन अब और सहना संभव नहीं है, आप कॄपा कर मुझे उठा लो.”  बस इसीतरह बड़्बड़ाती थी एवं बेतहाशा रोती थी. इसके दो-एक दिन के अन्‍दर ठाकुर के विषय की एक पत्रिका मेरे हाथ लगी.  उसमे मैंने पढ़ा – “कृष्ण तुम्हारी देखरेख स्वयम करते हैं, वह तुम्हें अपना मानते हैं,  अगर इसी तरह रोती रही तथा हाय-तोबा मचाती रही तो पता है उन्हें कितना कष्ट होता है?  इस तरह की चिन्ता तथा ऐसा व्यवहार क्या उचित है?”  उस समय मुझे ऐसा लगा मानो बाबा मुझे शांत करने के लिए हलकी झिड़की लगाते हुए मुझ ही से ये सब कह रहे हैं.  मुहूर्त मात्र में मेरी नासमझी दूर हो गयी.  दोनों हाथ जोड़कर मैंने प्रार्थना की -“बाबा मुझे माफ करदो, फिर कभी ऐसी व्यर्थ चिन्‍ता नहीं करुंगी जिससे कि तुम्हें कष्ट पहुंचे.  केवक मुझे मनोबल प्रदान करो ताकि मै जीवन के तूफानो का निडर होकर मुक़ाबला कर सकूं. मेरा हाथ पकड़कर रास्ता दिखाओ बाबा.” तब से जीवन के हर कदम पर प्रति क्षण मुझे प्रतीत होता है कि बाबा मेरे साथ हैं.  उन्होंने मेरे हृदय में ऐसा अदम्य साहस तथा आत्मविश्वास भर दिया है कि जिससे कि मै मुसीबतों का मुक़ाबला कर सकती हूँ.

अनुभव – 2

एकबार घुटनों के दर्द से मै बहुत परेशान थी.  आखिरकार डा. राजू नामक एक चिकित्सक से मशविरा किया.  उन्होंने कुछ दवाइयाँ दी और उससे मेरा दर्द क़रीब-क़रीब ठीक हो गया.  बहुत दिनों बाद परेशानी से छुटकारा पाकर मन खुशी से भर गया और मैंने सोचा कि ये डाक्टर सच में सभी पुण्यात्मा होंगे, मनुष्यों की कितनी ही व्यथा, यंत्रणा ये दूर करते रहते हैं………….जानना चहते हैं कि ऐसा सोचने के कुछ ही देर बाद उसी दिन ठाकुर-विषयक एक पत्रिका में मैंने क्या पढ़ा? ठाकुर वहाँ कहते हैं – “अरे पगली, डाक्टर नहीं, डाक्टर के भेष में मै ही सारी यंत्रणा दूर करता हूँ.” सिर्फ़ मुझे असली सच्चाई का पता चला ऐसा नहीं, ठाकुर ने मुझे ‘पगली’ पुकारा यह सोचकर ही मै आनंद विभोर हो गयी.  ‘पागल’ बाबा की पागल सन्‍तान, ऐसा एहसास किसे न आनंद में डुबो दे?

अनुभव – 3

जैसा कि पहले ही कहा है मेरी दीदी ऊषा रानी भी माँ कुसुम कुमारी एवं बाबा की परम् भक्त है तथा मेरी ही तरह कुसुमहरा कोटि नाम यग्नम से जुड़ी हुई थी.   एकबार किसी कारणवश बंगलौर नाम सप्ताहम में शामिल न हो सकी.  ऐसे एक आनंदोत्सव में भाग न ले पाने के कारण दीदी एक भयंकर दुःख तथा अफसोस में डूब गयी थीं.   उस दिन बिस्तर पर लेटे लेटे बड़बड़ाते हुए अपने फूटे भाग को कोस रही थीं व रो रही थीं.  अचानक उसने देखा कि सिरहाने कुसुम कुमारी देवी खड़ी हैं. माँ ने उसके सिर को सहलाते हुए कहा – “सप्ताहम में न जां सकी इसलिये रो क्यों रही है? देख्, मै तो तेरे पास ही हूँ.”……दीदी ने आँखें खोलकर माँ को देखा…. और उसके बाद वह मूर्ति धीरे धीरे विलीन हो गयी.  दीदी का मन माँ के दर्शन सौभाग्य के कारण आनंद से सराबोर हो गया. वह कह रही थीं कि उस अद्भुत अनुभव का शब्दों में वर्णन असंभव है.  मै भी आस् लगाये बैठी हूँ कि कब उन दोनों का दर्शन सौभाग्य मुझे भी प्राप्त होगा. सिर्फ़ एकबार तुम्हें देखने की मेरी आशा कब पूरी करोगे बाबा.  मुझे तुम्हारा नाम जपने में पूर्णतया डुबोकर रखो बाबा और तुम्हारे प्रेमामृत की केवल एक बूँद चखने दो.

Blog Post # 14, 07.08.2016 - वह घटना जिसके कारण मेरी जीविका प्राप्ति संभव हुईঃ शंकरभाई मेहता, भरूच

वह घटना जिसके कारण मेरी जीविका प्राप्ति संभव हुईঃ शंकरभाई मेहता, भरूच

(Hindi translation: Shyam Sen)

मैंने अपना कार्य जीवन सन् 1972 में बैंक ऑफ बरोदा के भरुच शाखा में लिपिक पद पर आरंभ किया था. मेरे पिताजी का देहान्‍त कई वर्ष पूर्व हो चुका था एवं दूसरों के घर पर काम करने से होने वाली सामान्य आय से मेरी मॉ घर चलाती थीं.  मुझे आशा थीं कि मेरी नौकरी लगने से मै परिवार की देखभाल कर सकूँगा तथा मॉ को और काम नहीं करना पडेगा.  लेकिन शायद विधि को यह मन्‍ज़ूर नहीं था.  चन्द महीनों में ही मेरी नौकरी चली गयी और मै पूरी तरह से अपने आप को असहाय एवं टूटा हुआ महसूस करने लगा.

लेकिन संयोगवश पिछले ही साल (1971) एक करीबी रिश्तेदार ने मेरी मॉ से कहा था कि वह भरूच पागल हरनाथ आश्रम में हर मंगलवार जाती थीं तथा ठाकुरजी की कृपा से उनके बेटे को अच्छी नौकरी मिल गयी थीं.  अतः मेरी मॉ भी वैसा करने लगी थी और मै भी मॉ के साथ हर मंगलवार आश्रम जाने लगा था. मेरे सौभाग्य से पहले ही दिन परम् पूज्य नर्मदा शंकरजी त्रिवेदी (मै उन्हें काका पुकारने लगा था) से मेरी मुलाकात हो गयी थी और उन्होंने मुझे बताया था कि ठाकुर हरनाथ के नाम स्मरण में कितनी शक्ति निहित है. काका ने आश्रम में हर रविवार को होनेवाले भजन के विषय में जब बताया तो मै उसमे भी शामिल होने लगा. हर मंगलवार और रविवार मिलने से मै काका के क़रीब आने लगा तथा उनकी सलाह और ठाकुरजी के विषय में प्रवचन से मुझे बहुत लाभ होने लगा.  इसलिये, जब मेरी बैंक की नौकरी छूट गयी तो मै मार्गदर्शन के लिए काका के पास पहुँचा.  उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि चिन्‍ता न करो, ठाकुरजी हैं न.

कुछ ही महीनों के अन्दर सरकारी बैंकों में लिपिक पद पर भर्ती के लिए  एन.आय.बी.एम. (नेशनल इंस्टीट्युट ऑफ बैंक मैनेजमेंट) द्वारा परीक्षा आयोजित की गयी. मैंने वह परीक्षा दी लेकिन फैल हो गया.  मेरी आखिरी उम्मीद नष्ट हो गयी.  मैं अत्यन्‍त हताश हो गया तथा अपने जीवन के बारे में किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया.  और तभी एक चमत्कार हुआ.  एन.आय.बी.एम. ने विगत परीक्षा को किसी कारणवश अवैध घोषित कर पुनः परीक्षा आयोजित की.  इस बार मै सफल हुआ तथा मुझे एक अस्थायी पद पर नियुक्ति मिल गयी.  तीन महीने के पश्चात स्थायी पद पर नियुक्ति हेतु मुझे व्यक्तिगत् साक्षातकार के लिए बुलाया गया. यद्द्यपि मेरी अस्थायी नियुक्ति के लिए हुई ठाकुरजी की कृपा के कारण मै पूर्णतया कृतज्ञ था, फिर भी कहीं बैंक ऑफ बरोदा से मेरी नौकरी छूटना मेरे स्थायी पद के लिए होनेवाले साक्षातकार को प्रभावित न करे, ऐसा सोचकर मै उदास था.  लेकिन काका ने कहा बीती बिसारो और केवल कुसुम हरनाथ नाम स्मरण करो.  मैंने वैसा ही किया.  ठाकुरजी की असीम कृपा और काका के समयानुकूल सलाह से मुझे स्टेट बैंक ऑफ इन्‍डिया, वलसाड़ शाखा में कैशियर पद पर स्थायी नियुक्ति मिल गयी. तत्पश्चात कुल 32 वर्ष बैंक की नौकरी करने के बाद असिस्टंट मैनेजर पद से मै सन्मानपूर्वक सेवानिवृत्त हुआ.  इस तरह न केवल मैं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभा सका बल्कि पेन्‍शन की एक अच्छी रकम पाते हुए प्रभु कुसुम हरनाथ का नाम लेते लेते एक सन्तोषजनक जीवन व्यतीत कर रहा हूँ.  मै यह सोचकर भी काँप जाता हूँ कि अगर एन.आय.बी.एम. की पहली परीक्षा चमत्कारिक रूप से रद्द न हुई होती और मुझे दूसरा मौका न मिलता तो मेरी क्या दशा होती. मेरे जीवन में ठाकुरजी के अनगिनत आशीर्वादों में से यह मात्र एक उदाहरण है.

Blog post # 13; 04/08/2016 - "लम्बी बीमारी के बाद काम पर पहुँचना": भास्वती चक्रवर्ती

लम्बी बीमारी के बाद काम पर पहुँचना”भास्वती चक्रवर्ती

(Hindi translation: Shyam Sen)
मैं दुर्गापुर में रहनेवाली सरकारी स्कूल की एक अध्यापिका हूँ.  वर्धमान ज़िले के गोपालपुर गॉव के प्राथमिक विद्यालय में सन् 2004से पढ़ाती थी. दुर्गापुर से रेल मार्ग पर सात  स्टेशन पार कर तालित स्टेशन पर उतरना पड़ता था. वहाँ से बस द्वारा 6 कि.मी. दूर एक ग्राम तक और उसके बाद रिकशा-वैन से फिर 4 कि.मी. जाकर कहीं अपने स्कूल पहुँचती थी.  रिकशा-वैन न मिलने की स्थिति में आखरी के 4कि.मी. कभी पैदलकभी किसी के मोटरबाइक के पीछे बैठकर जाना पड़ता था. कुल मिलकर 12-13 घन्‍टे लग जाते थे घर लौटते लौटते. इस तरह सात साल बीते. 
 
 सन् 2011 में मै काफी बीमार हो गयी और मुझे चिकित्सा के लिए आखिरकार वेल्लोर ले जाना पड़ा.  वहाँ से लौटकर काम पर जाने लायक स्वस्थ होने में 5 महीने लग गए.  इतनी लम्‍बी छुट्टी के बाद जब पहली दफा काम पर जाने के लिए चलने लगी, मेरे पति भी मेरे साथ हो लिए ताकि कोई असुविधा न हो.  लेकिन शुरुआत ही आफत से हुयीं. दुर्गापुर स्टेशन पर जाकर पता चला कि जिस लोकल ट्रेन से मुझे जाना था वह थोड़े ही समय पहले निकल चुकी है. अगले ट्रेन से जाने पर स्कूल पहुचने में क़रीब दो घन्‍टे देर हो जायगी.
 हाथ में लोकल ट्रेन की टिकट लिए दोनों चिन्‍ताग्रस्त तथा असहाय हालत में ये समझ नहीं पा रहे थे कि अब करें क्या. हालाँकि कुसुमहर कुसुमहर जपना शुरू था. इतने में पता चला कि एक दूरगामी एक्सप्रेस ट्रेन आ रही है. बाकी सभी ने सहानुभूति जताते हुए उसी ट्रेन पर चढ़ जाने की सलाह दी.  लोकल ट्रेन की टिकट लेकर एक्सप्रेस में सफर करने से जेल हो सकती हैइतना ही नहीं यह ट्रेन रुकेगी वर्धमान अर्थात तालित से एक और स्टेशन आगे चलकर. वहाँ से वापस तालित कैसे आयेंगे और फिर स्कूल कब पहुँचेंगे – इतनी सारी चिन्‍तायें एकसाथकुछ समझ में नहीं आ रहा था.  खैर ट्रेन प्लेट्फार्म पर रुकी और सभी की राय को मानते हुए हम चढ़ गए. एक खाली सीट पर बैठ आँखें बन्‍द कर कुसुमहर कुसुमहर जपना शुरू कर दिया. समय के बीतने का कोई ऐहसास नहीं हो रहा थाअचानक लगा कि गाडी की रफ्तार धीमी हो रही है. सोचा वर्धमान पहुँच रहे होंगे. खिड़की से बाहर झांका तो देखा यह तो मेरे गंतव्यस्थल तालित स्टेशन का प्लेटफार्म आ रहा है.  झट से दोनों उठकर दरवाजे के पास खड़े हो गए. प्लेट्फार्म पहुँचकर ट्रेन पूरी तरह से रुक गयी. हम उतरे और तुरंत ट्रेन चल पड़ी,मानो हमे उतारने के लिए ही रुकी थी.  विस्मय और कृतज्ञता से मन ओतप्रोत हो गयाभावविभोर मैंने थोड़ी देर खड़े होकर मेरे दयालु प्रभु ठाकुर हरनाथ को प्रणाम किया. इसके बादबसवैन सब सही उपलब्ध हो गए और हम सही समय पर स्कूल पहुँच गए.  
 लोकल ट्रेन की टिकट लेकर एक्सप्रेस ट्रेन से निर्विघ्न यात्राउस ट्रेन का न रुकने वाली स्टेशनअर्थात मेरे गंतव्यस्थल तालितपर सिर्फ़ रुककर मुझे उतारना एवं इन सबके फलस्वरूप मेरा समय पर काम पर पहुँचना – यह सब कैसे संभव हुआ?   इसी तरह पता नहीं कितनी बार मेरे ठाकुर ने मुझे विपदाओं से मुक्त किया है, उसका कोई हिसाब नहीं. उनकी इच्छा हुई तो वह् भी किसी दिन भक्तों के साथ साझा करने की मन्शा रही.

Blog Post # 12; 28.07.2016 - "सोनामुखी में ठाकुरजी का आविर्भाव-शतवर्ष उत्सव": (रथींद्र माधवदास मोदी, पुणे

सोनामुखी में ठाकुरजी का आविर्भाव-शतवर्ष उत्सव“- रथींद्र माधवदास मोदी, पुणे

मुझे स्पष्ट याद है कि बात  26 जून 1965 की है. हमारे परम् प्रिय प्रभु हरनाथ के आविर्भाव-शतवर्ष उत्सव में शामिल होने हेतु हमलोग क़रीब 15 जन बंबई से सोनामुखी यात्रा कर रहे थे.  विमला माँ ने इसके कई वर्ष पूर्व बंबई के मशहूर मूर्तिकार तालिब द्वारा ठाकुरजी की एक मार्बल की प्रतिमा बनवा कर रखी थी. उनकी योजना थी कि बोरीवली (मुंबई) में एक मन्‍दिर का निर्माण कर उस मूर्ति को वहाँ स्थापित की जाय. लेकिन कुछ कारणवश यह हो नहीं पाया था. इसलिये जब हम आविर्भाव-शतवर्ष उत्सव में शामिल होने हेतु जाने लगे तब उन्होनें मेरे पिताजी (स्व. माधव दास मोदी) से मूर्ति को हमारे साथ ले जाकर सोनामुखी श्रीमंदिर में स्थापित करने की विनती की. अतः उस 860 किलो वजन की मूर्ति की (जो कि आजकल हम श्रीमन्‍दिर में स्थापित देखते हैं) पेशेवर लोगों की मदद से ट्रेन से ले जाने लायक सुरक्षित पैकिंग करवा कर तथा चार कुलियों की मदद से हमारी गाड़ी के ब्रेक वैन में सुरक्षित रख दिया गया.  हमारी योजना यह थी कि आसनसोल स्टेशन पर उतरकर हमारे लिए दो-तीन टैक्सी और मूर्ति के लिए एक ट्रक लेकर  सोनामुखी पहुंचेंगे.

28 तारीख की सुबह यथा समय ट्रेन आसनसोल स्टेशन पहुँची.  वहाँ हमें लेने के लिए आए हुए ठाकुरजी के दो पोते बीजूमामा तथा तुलुमामा (श्री बिजोय कृष्ण बैनर्जी तथा तुलसीदास बैनर्जी) को देखकर हम सभी बहुत खुश हुए. उन्होंने हमारे लिए ट्रक तथा टैक्सी की व्यवस्था भी कर रखी थी. मेरे पिताजी ने चार कुली बुलाकर ब्रेक वैन से मूर्ति उतारने के लिए कहा.  लेकिन उनकी सारी कोशिसों के बावजूद मूर्ती जगह से बिलकुल न हिली. दो और कुली लगाये गए, कोई असर नहीं. और ज्यादा लोग लगाए गए लेकिन मूर्ति अपनी जगह से टस से मस नहीं हुई. अब ट्रेन छूटने का समय हो रहा था और गार्ड तगादा लगा रहा था. लेकिन मूर्ति के अपनी जगह से न हिलने से सारे प्रयत्न व्यर्थ हो रहे थे. अंततोगत्वा गार्ड ने अपना आपा खॊया और मेरे पिताजी पर चिल्लाने लगा कि अब और ज्यादा देर तक ट्रेन रोकी नहीं जा सकती, आप हावड़ा (ट्रेन का आखिरी स्टेशन) आकर मूर्ति ले आना. मेरे पिताजी तो शुरू से ही ‘कुसुमहर’ ‘कुसुमहर’ जप रहे थे, अब उन्होंने भी मायूस होकर ठाकुरजी से मन ही मन कहा – देखो तुम्हारे लिए मुझे कितनी बातें सुननी पड़ रही हैं. और बस उनका ठाकुरजी से इतना कहना था कि मूर्ति घसरने लगी तथा चार कुलियों ने बड़े आराम से उतारकर,पुल पार कर, ट्रक पर रख दिया. ठाकुरजी को अपने बच्चों के साथ इस तरह की मसखरी करने में हमेशा आनंद आता है.

हमलोग खाने के समय तक सोनामुखी श्रीमन्दिर पहुँचे. वहाँ पर त्यौहार का माहौल न होकर, हमारी आशा के विपरीत चिन्ता का वातावरण बना हुआ था. पता चला कि सोनामुखी में काफी दिनों से बारिश न होने के कारण अनंत कुंड एवं बाकी कुओं का पानी बहुत ही निचले स्तर तक चला गया है. सभी लोग चिंतित थे कि इतने लोग जो देश के कोने कोने से आ रहे हैं, उनके लिए खाना पकाने, नहाने धोने के लिए पानी की व्यवस्था कैसे की जायगी. सभी ठाकुरजी द्वारा हस्तक्षेप करने की प्रार्थना कर रहे थे. और मानो सुनली ठाकुरजी ने उन सभी की प्रार्थना; अगले ही दिन 29 तारीख को निरंतर मूसलाधार वर्षा हुई. सबने राहत की साँस ली और खुशी से झूम उठे. लेकिन  दूसरे ही दिन 30 तारीख को फिर चिन्ता सवार हो गयी क्योंकि इतनी तेज़ हवा और निरंतर बारिश से जो अल्पकालिक रसोई बनाई गयी थी वह ढह गयी थी, एवं किराणा सामान, सब्जियाँ, तथा मसाले वगैरह का पहुंच पाना दूभर हो रहा था. सभी परेशान हो रहे थे कि 4-5 दिनों तक इतने सारे भक्तों के लिए खाने की व्यवस्था कैसे की जायगी.  खैर, उस रात हम सभी’कुसुमहर’ ‘कुसुमहर’ जपते जपते सोने के लिए गए.  अगले दिन (1 जुलाई) सुबह जब हम जागे, ठाकुरजी की असीम कृपा – आसमान बिलकुल साफ़, धूप निकली हुई तथा अनंत कुंड पानी से लबालब भरा हुआ नजर आया. रसोई का ढाँचा फिर से खड़ा किया गया,सारी सामग्री धीरे धीरे पहुँचने लगी एवं ठाकुरजी का आविर्भाव-शतवर्ष उत्सव अत्यन्त सफलता के साथ सम्पन्न हुआ.

ब्लॉग पोस्ट # 11, 17.07.2016 - "पुत्र को जीवन दान": श्यामली चटर्जी, बांकुड़ा

“पुत्र को जीवन दान”: श्यामली चटर्जी (ठाकुर हरनाथ के पौत्र श्री बसन्‍त कुमार बन्‍दोपाध्याय की पुत्री), बांकुड़ा.
(हिन्दी अनुवाद: श्याम सेन)

यद्द्यपि मेरे जैसे मूर्ख के लिए यह एक प्रकार की धृष्टता ही है, फिर भी प्रभुजी एवं मॉ की कृपा से धन्य दो घटनाओं का उल्लेख किए बिना रहा नहीं गया.

प्रथम घटना:

सन् 1974 अप्रैल की एक रात. नींद में ही देखा कि मै सोनामुखी क़े शम्भूनाथ की पूजा कर वापस आकर ठाकुर और मॉ क़े चरणों को सहला रही हूँ एवं उसके साथ ही गोपाल की भी पूजा भी कर रही हूँ (हालॉकि वास्तव में उस वक्त मै गोपाल की पूजा नहीं करती थी). थोड़ी देर क़े पश्चात गोपाल ओझल हो गए दृष्टि से, लेकिन उनके सिंहासन से प्रकाश की छटा निर्गत होने लगी. ये सारे दृश्य एक क़े बाद एक मेरे सामने उपस्थित हो रहे थे.  नींद खुल गयी और मैंने  मेरे पति को जगाकर पूरा वृत्तांत सुनाया. कुछ दिनों बाद मै मेरे मायके सोनामुखी गयी सारी घटना मेरी छोटी चाची (श्रीमती अतसी देवी – श्री तुलसीदास बंदोपाध्याय की पत्नी) को विस्तारपूर्वक सुनाया.  रिश्ते में श्रध्येय होते हुए भी वे मेरी चाची कम मित्र ज्यादा थी. सबकुछ सुनकर उन्होंने मुझे यह बात किसी को न बताने की सलाह दी. उसी महीने मै गर्भवती हुई. इस बीच चाचीजी पूरी हो आयीं और वहाँ से मेरे लिए गोपालजी की एक मूर्ति ले आयीं.  आज भी मै ठाकुर क़े साथ गोपाल की भी सेवा करती हूँ. गोपाल मुझे पुत्रवत प्रतीत होता है.

उसी साल 27 नवंबर की शाम को मेरी प्रसव वेदना शुरू हुई एवं साँझ तक मुझे बांकुड़ा अस्पताल में भर्ती कर दिया गया.  वेदना क्रमशः तीव्रतर हो रही थी और मै लगातार “कुसुमहर कॄपा करो, कुसुमहर कॄपा करो” बड़बड़ाने लगी थी.  लेकिन जब वेदना असहनीय हो गयी मैंने मन ही मन ठाकुर से उलाहने क़े तौर पर कहा कि जाओ अब तुम्हारा नाम नहीं लूँगी और जोर जोर से कराहने लगी जैसा कि स्वाभाविक था. जब कोई राहत न मिली फिर से ख़ुद-ब-ख़ुद कुसुमहरनाथ नाम जपने लगी. ठीक उसी समय मैंने मॉ कुसुम कुमारी को अपने सिरहाने खड़े हुए देखा लेकिन मॉ का चेहरा चिन्‍तित सा लगा.

रात डेढ़ बजे मेरे पुत्र का जन्म हुआ;  उचित अवधि क़े दो महीने पूर्व ही.  उसका मुख ही केवल मानव सुलभ था; बाकी पूरा शरीर त्वचाविहीन अस्थि-पंजररमय एक पक्षी शावक स्वरूप था. अपनी उस निढाल अवस्था में भी मुझे डाक्टर-नर्सों क़े बीच हो रही वार्तालाप सुनाई दे रही थी कि इस समय-पूर्व जन्मे बच्चे को बचा पाना असंभव है.  तभी याद आया कि मॉ कुसुम कुमारी का चेहरा क्यों इतना चिन्‍तित था.  उसी क्षण मन ही मन बच्चे को उनके चरणों पर सौंपकर मैंने कहा – जीवन देना या लेना सभी तुम्हारी कृपा.  छह महीने तक बच्चे को कपास की तह में लपेटकर रखना पड़ा था.  वही लड़का धीरे धीरे बड़ा हुआ, इंजीनियरिंग की,  MBA  किया और अब एक अच्छी कंपनी में ऊँचे ओहदे पर आसीन है.  किसकी कृपा से यह सब संभव हुआ मै ही जानती हूँ.

द्वितीय घटना

उसी बच्चे की उमर जब दो साल की, अचानक आँतों का बुखार शुरू हुआ तथा साथ में बार बार कय व दस्त. स्थानीय एक डाक्टर की सलाह से बारली-पानी पिलाने लगी.  तीसरे रोज़ बच्चा मेरा बिल्कुल मरियल सा हो गया और उसके बदन पर नील पड़ने लगा.  उसके पिता क़े घर लौटते ही भयभीत हम दोनों किसी बड़े डाक्टर को दिखाने क़े लिए बेतहाशा निकल पड़े.  किस्मत ऐसी कि उसदिन कोई रिक्शा भी नहीं मिल रहा था. वही एक मंत्र जो हमें ज्ञात है – कुसुमहर कृपा करो, कुसुमहर कृपा करो – रटते रटते प्राय: दौड़ते हुए हम डा: अजीत नन्‍दी महाशय क़े चेंबर पहुँच गए.  देखकर उन्होने क्या समझा पता नहीं, हमसे सिर्फ़ इतना कहा कि इसे तुरन्‍त अस्पताल में भर्ती करना पड़ेगा.  मैंने उनके पैर पकड़ कर उनसे विनती की कि मेरे बच्चे की चिकित्सा कृपापूर्वक वे ख़ुद ही करें.

इस घटना क़े कुछ दिन पहले से ही ठाकुर क़े परम् भक्त श्री अकिंचन नंदी क़े दूसरे बेटे एडवोकेट श्री हंस गोपाल नंदी महाशय क़े परिवार क़े साथ हमारे पारिवारिक सम्बन्धों में काफी निकटता आ गयी थी. हंस बाबू और उनकी पत्नी ललितादेवी हमे अपनी सन्‍तान की तरह प्यार करते थे.  मेरे पति और मै उन्हें क्रमशः जेठू (पिताजी के बड़े भाई) और जेठिमा कहकर पुकारा करते थे. उनके कहने से ही डा: अजीत नंदी ने एक नर्स की व्यवस्था कर दी तथा हमारे घर पर ही चिकित्सा शुरू कर दी. उनकी चिकित्सा तथा हम दोनों द्वारा हमारा एकमात्र मंत्र “कुसुम हरनाथ कृपा करो” जपना समान्‍तराल रूप से एकसाथ चलता रहा. जेठू और जेठिमा भी हमारा मनोबल बढाने एवं भरोसा दिलाने में पूरा साथ दिया.  प्रभुजी एवं मॉ की कृपा से मेरे पुत्र की हालत धीरे धीरे सुधरने लगी.

चौथे दिन शाम की बात, मेरा पुत्र मेरी गोद में.  कमरे क़े अन्दर डा: साहब, नर्स, हंसगोपाल बाबू और ललितादेवी.  अचानक मुझे लगा कि मॉ कुसुम कुमारी देवी मेरे पुत्र क़े सिरहाने खड़ीं हैं. ठीक उसी वक्त जेठू (हंसगोपाल बाबू) झट से कमरे क़े बाहर चले गए और वहाँ से चिल्लाकर कहा -“अब और चिन्ता की कोई ज़रूरत नहीं. मॉ तुम्हारे बच्चे क़े पास ही हैं.” अचरज की बात ये कि सिवाय मेरे और हंसगोपाल बाबू क़े वह दृश्य और किसी को नहीं दिखाई दिया था.  कमरे में लौटकर उन्होंने कहा – “आज मेरा जीवन सार्थक हो गया.” बेटा मेरा पूरी तरह से स्वस्थ होने क़े उपरान्‍त डा: साहब बोले – “उसको मौत क़े मुँह से छु्ड़ा लाने में निश्चित ही किसी अलौकिक शक्ति का हाथ था.  आज मुझे पता चला कि चिकित्सा शास्त्र से परे भी कुछ है.”

इसके बाद हम पुत्र को लेकर सोनामुखी श्रीमन्‍दिर गए और वहाँ प्रभुजी तथा मॉ की विधिवत्‌ पूजा की. उनकी इस असीम कृपा की बात आज सभी भक्तजनों क़े साथ साझा करने में मुझे जो अपार आनन्‍द हो रहा है उसे समझाने क़े लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं.  उनके चरणों में सर्वदा इसी तरह हमारी मति बनी रहे यही प्रार्थना करती हूँ.

ब्लॉग पोस्ट # 10; 10.07.2016 - मेरे पिताजी की पहली बरसी" - श्री सौमित्र मुखर्जी, दुरगापुर

“मेरे पिताजी की पहली बरसी” – श्री सौमित्र मुखर्जी, दुरगापुर

(मौखिक वर्णन: श्री सौमित्र मुखर्जी, आलेख: श्री तिलक घोषाल)
(हिन्दी अनुवाद: श्याम सेन)

मेरे पिता श्री रामेश्वर मुखोपाध्याय (ठाकुर की सबसे बड़ी पोती ‘मेनकू’ केपुत्र) का सितंबर 2010 में स्वर्गवास हुआ था एवं मेरे दादा (बड़े भाई) सुब्रतऔर मैंने मिलकर हमारे सामर्थ्य के अनुसार उनकी पारलौकिक क्रिया संपन्न की थी.काल का पहिया घूमता हुआ पता नहीं कब साल बीत गया और हमने महसूस किया कि उनकीपहली बरसी, जिसका काफी महत्व होता है, बिल्कुल नजदीक आ चुकी है.

ठाकुर की कॄपा से दादा सुरीली आवाज़ के धनी हैं, जिस कारण से कुसुमहर संगीतगाकर उन्हें अत्यन्त संतोष प्राप्त होता है लेकिन उनके पास नियमित अर्थोपार्जनका कोई साधन नहीं है. और बीमा पॉलिसी बेचकर मेरी ख़ुद की आमदनी भी साधारण स्तरकी ही है. अतः हमारा परिवार आर्थिक दृष्टि से कोई ख़ास समृद्ध नहीं है.  फिरभी हम दोनो भाइयों की इच्छा थी कि पिताजी की पहली बरसी माँ के भावात्मक संतोषके अनुसार ही होनी चाहिये.  हम माँ से पूछते रहे कि पहली बरसी का आयोजन किसतरह का हो, उनकी कोई अगर विशेष इच्छा हो तो बताएं, पर वह बेचारी हमारी आर्थिक
परिस्थिति को देखते हुए, निर्णय हम ही पर डालती रही. काफी मनाने के उपरांतआखिरकार वाकई वे क्या चाहती थी इसका मोटे तौर पर एक अंदाजा हमारी समझ मेंआया.  मैंने दादा से कहा कि बरसी माँ की इच्छानुसार ही मनेगी और रही बात खर्चेकी, उस पर बाद में सोचेंगे. कह तो दिया मैंने क्योंकि कहना आसान था, वास्तवमें धन का बंदोबस्त कैसे होगा इस बारे में मेरे पास कोई सुराग नहीं था.

पिछले कई महीनों से एक महानुभाव को मै एक बीमा पॉलिसी बेचने की जी तोड़कोशिस कर रहा था.  मेरे विचार से वह पॉलिसी उनके लिए अत्यन्त उपयुक्त थी, लेकिनसज्जन उस विषय पर अपना निर्णय हमेशा टालते रहते थे. दादा से मेरी बातचीत केबाद एकदिन अचानक उनसे मेरी मुलाकात हो गयी. और मैंने फिर उन्हेँ पॉलिसी केबारे में याद दिलाया.  मुझे पता नहीं क्यों, पर इसबार उन्होंने मुझे घर परमिलने के लिए कहा.  मैंने भी देर नहीं की और फौरन उनके घर जाकर उनसे मिला.उन्होंने मुझे बताया कि पॉलिसी खरीदने का उनका मन बन चुका है.  फिर क्या थातुरंत सारे कागजात पूरे करवाये और उनकी पॉलिसी कार्यान्वित करवा दी. इससे एकअच्छा खासा कमीशन मुझे मिला जो कि माँ की इच्छानुसार ‘पहली बरसी’ मनाने मेंसहायक सिद्ध हुई.

पहली बरसी का हर पहलू बड़े ही सुगठित रूप से पारित करने के पश्चात जब सभीअभ्यागत चले गए तब मै थोड़ा सा सुस्ताने हेतु बैठा और आदतन एक पान की गिलौरीमुँह में डाल दिया. मन हि मन मै बहुत खुश था और उस मानसिक प्रसन्नता की अवस्थामें मैने मानो स्वगतोक्ति की “हे प्रभु, जिस सलीक़े से तुमने प्रत्येक कार्यमुझसे करवा लिया, मुझे लगता है कि मैंने तुम्हारा तथा तुम्हारी कारस्थानी कमसे कम 1% तो जान ही लिया है.”  मेरी सोच या स्वगतोक्ति का वाक्य अभी पूरा भीनही हुआ था कि मेरे गले में सुपारी का एक टुकड़ा फँस गया.  मेरी हर संभव कोशीसके बावजूद वह टुकड़ा जस का तस फँसा रहा. हालत ये हुई कि मेरा दम घुटने लगा.  तबजाकर बात मेरी समझ में आयी और मै अन्दर ही अन्दर रोने लगा – “प्रभु, तुम्हारा 1जान सकने का विचार मेरी धृष्ट सोच थी और उसके लिए मै क्षमा याचना करता हूँ. मै
प्रतिज्ञा करता हू कि इस तरह के विचारों को मै कभी भी अपने मन में स्थान नहींदूँगा. लेकिन अब ये सुपारी का टुकड़ा तो दया करके निकाल दो वरना मै दम घुट करमर जाऊँगा.”  इधर मेरी प्रार्थना समाप्त हुई, और उधर वो सुपारी का टुकड़ा और ज्यादा सताये बग़ैर बाहर.

ब्लॉग पोस्ट # 9, 04.07.2016 - "बाबा सेठ की सिगरेट कथा": मौखिक वर्णन - श्री हरेश भाई झवेरी

“बाबा सेठ की सिगरेट कथा”
(मौखिक वर्णन: श्री हरेश भाई झवेरी, आलेख: श्री तिलक घोषाल)
(हिन्दी अनुवाद: श्याम सेन)

सन् 1955. तब मै 9-10 साल का बालक था.  माँ कुसुम कुमारी देवी के माथे के दाहिने ओर का ट्यूमर दिन ब दिन बढ़ता जा रहा था.  अकसर उसमे से पीव भी रिसने लगा था.  तुरंत शल्यक्रिया की जरूरत महसूस की गयी.  चूंकि उस वक्त बंबई में चिकित्सा व्यवस्था बेहतर थी, मेरे दादाजी स्व: त्रिभुवनदास भीमजी झवेरीने चिरौरी की कि माँ की चिकित्सा बंबई में ही हो.  माँ की सहमति प्राप्त होते ही वे तथा मेरे पिताजी स्व: मंगल दास झवेरी, सोनामुखी गए तथा माँ को एवं तुलुदादा समेत परिवार के कुछ और सदस्यों को साथ में बंबई लेकर आए.

पहुँचने के कुछ ही दिनों के अन्दर माँ को बंबई अस्पताल में भर्ती किया गया.  वहाँ डा: गोवर्धनदास ने शल्यक्रिया द्वारा ट्यूमर बाहर निकाल दिया. ताकि अस्पताल से घर लौटने पर उनकी आवश्यक तीमारदारी नियमित रूप से हो पाय, उन्होंने ये मशविरा दिया कि माँ अगर 6 महीने तक सोनामुखी वापस न जांय तो अच्छा रहेगा.  इस व्यवस्था के लिए माँ के राज़ी होते ही सबके मन में आनंद की लहर दौड़ गयी कि अब 6 महीने तक माँ का सानिद्ध्य प्राप्त होगा. और माँ, तुलुदादा तथा अन्य जो भी सोनामुखी से आए थे झवेरी हाउस में (जो कि उन दिनों संयुक्त झवेरी परिवार का रिहायशी घर था) रहने लगे.

उन 6 महीनों का हर दिन झवेरी हाउस में उत्सव सा रमने लगा.  प्रतिदिन 100-200 भक्तजन माँ के दर्शनार्थ आते थे – खासकर दक्षिण भारत से. और किसीको भी बग़ैर प्रसाद या भोजन पाये जाने नहीं दिया जाता था.  रसोई दिन रात हर दिन 6 महीने तक कभी थमी ही नहीं.  पूजा एवं आरती के इलावा हर रोज़ माँ बड़े हॉल में भक्तों के बीच घंटों बैठती थीं.  प्रतिदिन आनेवालों में एक 60-65 वर्षीय सज्जन थे जिनका नाम था बाबा सेठ; जो कि विमला माँ के परिवार से संबंधित थे. वो आते थे तथा दीवार पर टंगे ठाकुरजी के फोटो के ठीक नीचे जो सोफा रखा था उस पर पूरा समय चुपचाप बैठे रहते थे.

बाबा सेठ मस्तिष्क विकार से पीड़ित थे.  बहुत कम बोलते थे; यूं कहें कि बस वे अपनी ही दुनिया में खोये रहते थे. केवल सिगरेट उनकी कमजोरी थी.  लेकिन उनके मानसिक स्वास्थ्य की दशा को देखते हुए डाक्टरों ने उन्हें धूम्रपान न करने की हिदायत दी थी और उनके पारिवारिक सदस्य पूरी निगरानी रखते थे ताकि वे धूम्रपान न कर सकें.  अन्य दिनों की तरह उस दिन भी बाबा सेठ आकर ठाकुरजी के फोटो के ठीक नीचे रखे हुए सोफे पर विराजमान थे. किसी कारणवश जैसे ही मै उनके सामने से उस दिन गुज़रा, उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर इशारे से मुझसे दियासलाई माँगी. जैसा कि पहले कह चुका हूँ उस वक्त मै मात्र 9-10 साल का बालक था, उनकी मानसिक दशा का मुझे कोई ज्ञान न था और उन्होंने मुझसे दियासलाई क्यों माँगी ये भी नहीं समझा था.  मै सीधे अन्दर गया और एक दियासलाई लाकर उन्हें दे दिया.  थोड़ी देर पश्चात सभी ने देखा कि बाबा सेठ मजे से सिगरेट पी रहे थे. उनकी पत्नी यह देख् चकित हो गयी और लगी पूछने “किसने इन्हें सिगरेट और दियासलाई दी?”  मैंने तुरंत स्वीकार किया कि दियासलाई मैंने ही लाकर दी थी लेकिन सिगरेट के बारे में मुझे कुछ भी पता न था. ठीक उसी वक्त मेरी ही उमर का एक बालक जो भक्तों के बीच बैठा हुआ था, चिल्लाकर बोला – “मैंने एक सिगरेट उस फोटो में से टपककर उनकी गोद में गिरते हुए देखा है” – ऐसा कहते हुए उस बालक ने बाबा सेठ के सोफे के ठीक ऊपर टँगे ठाकुरजी की फोटो की तरफ़ इशारा किया. यह सुनते ही सबके सब इस कदर स्तब्ध हो गए मानो हर किसी ने ज़ुबान ही खो दी हो.

पुनश्च:

इस घटना के कई वर्ष पश्चात तुलुदादा ने मुझे बताया था कि सोनामुखी में एकबार एक वृद्धा आकर अपनी ट्यूमर जनित व्यथा एवं असह्य वेदना के बारे में बताते हुए माँ के समक्ष बहुत रोयी थी.  कुछ ही दिनों के अन्दर उस वृद्धा का ट्यूमर अपने आप अदृश्य हो गया और माँ के माथे पर ट्यूमर दीखने लगा.